गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

कला और जीवन

भारतीय चिंतकों एवं मनीषियों का मत रहा है कि धर्म-मूलक राजनीति ही राष्ट्र का कल्याण कर सकती है. राजनीति पर धर्म के अंकुश की बात आज अवांछनीय स्वीकार कर ली गयी है इसलिए वर्त्तमान में धर्म और राजनीति को पृथक कर दिया गया है ....परिणाम सबके सामने है. इसी तरह विक्टर कजिन नें जीवन से कला को पृथक करने की वकालत करके न तो कला का कुछ भला किया और न ही मानव समाज का. वर्त्तमान दौर प्रज्ञापराध ( Intellectual blasphemy )का चल रहा है. ज़ो हित में अहित और अहित में हित को देखता व स्थापित करता है .....वह प्रज्ञापराधी है ... कालान्तर में तदैव सिद्धांत भी बन जाते हैं. ऐसे विकृत सिद्धांतों का खंडन कर प्राकृतिक सिद्धांतों की पुनर्स्थापना कर पाना बड़ा ही दुष्कर कार्य है ......तथापि हम इस विषय पर चिंतन तो कर ही सकते हैं. यह लेख इसी चिंतन का एक लघु प्रयास है.
सरकस के नटों के लिए कला का ज़ो अर्थ है वह रंगमंच के पात्रों के लिए नहीं है. कला का जानकार तो ठग भी होता है, प्राचीन काल में काशी की चौर्य कला प्रसिद्ध रही है. जासूस भी अपनी कला के बल पर ही रहस्यों का पता लगा पाता है, किन्तु किसी साहित्यकार या चित्रकार के लिए कला का अर्थ नितांत भिन्न है. सच तो यह है कि अपने विभिन्न रूपों में कला हमारे चारो ओर बिखरी हुयी है. अस्तु, मेरा अनुरोध है कि "कला " को परिमित न किया जाय अन्यथा कला के विस्तृत आयामों-स्वरूपों को समझाने में कठिनाई होगी और भ्रम भी. मैं गीत-संगीत, नृत्य-अभिनय, चित्रों-रंगों से आगे की कला की बात कर रहा हूँ. यह कला "आदि" की है ...."सृष्टि" की है. अमूर्त की अभिव्यक्ति है यह "कला". सृष्टि के आदि में जब सूक्ष्म सत्ता या अव्यक्त शक्ति नें अपने आप को भाव जगत में व्यक्त किया तब वह भी कला ही थी........ईश्वर की कला. इस कला नें अपने मूर्त स्वरूप से सभी को मोहित किया, इसीलिये विद्वानों नें इसे नाम दिया -"माया". इस "माया" का चितेरा ईश्वर है इसलिए उसकी सम्पूर्ण कला "विचित्र" है. मनुष्य द्वारा रचित कला "चित्र" है, विचित्र नहीं. इसका तो वह अधिकारी ही नहीं है ...और न ही इतना सामर्थ्यवान. कविता, कहानी, उपन्यास इन सब में लिखे गए शब्द हमारे मन मस्तिष्क में चित्र ही तो बनाते हैं.
जिस प्रकार "अमूर्त विचार" मूर्त भाव में प्रकट होकर कला बन जाते हैं उसी तरह "अव्यक्त शक्ति" व्यक्त भाव में प्रकट होकर ब्रह्माण्ड बन जाती है. दूसरे शब्दों में कहें तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ईश्वर रचित कला ही तो है. आयुर्वेद नें माना है कि मनुष्य का सूक्ष्म शरीर ही प्रकट होकर स्थूल के रूप में जीवन को धारण करता है. आशय यह कि जीवन भी एक कला है. दूसरे शब्दों में कहें तो जीवन को कलापूर्ण ढंग से जिया जाना चाहिए. आयुर्वेद नें विश्व को यही तो सिखाया है. गर्भाधान के संकल्प से लेकर जातक के जन्म और मृत्यु तक के सभी प् दा वों   को सुरुचिपूर्ण ढंग से जीना ही "जीवन की कला" है. आवश्यकता तो यह है कि विश्व समाज इस दुर्लभ कला को सीखकर अपने जीवन को चित्रित कर रंजित करले और वर्त्तमान जीवन शैली के दुष्परिणामों से स्वयं की रक्षा करे. आगे के लेखों में हम आयुर्वेद की इस दुर्लभ कला के दर्शन करेंगे. अभी तो ईश्वर की अनंत कला का दर्शन ही अभीष्ट है जहां ब्रह्माण्ड के सभी पिंड एक वृहत व्यवस्था के अंतर्गत गति करते हुए हमें न केवल आश्चर्यचकित करते हैं अपितु हमारे जीवन को प्रभावित भी करते हैं. यही कला रात को आकाश में टिमटिमाकर बच्चों को कौतूहल से भर देती है, तब उनके बाल-सुलभ मन में उत्पन्न हुए प्रश्नों के उत्तर दे सकना किसी कलाकार के ही वश की बात होती है. ईश्वर की यही परम कला जब धरती पर उतरती है तो कहीं पर्वत, कहीं घाटियाँ, कहीं झरने, कहीं हिम, कहीं जंगल, कहीं पुष्प .........न जाने किन-किन रूपों में प्रकट होकर पूरी धरती पर बिखर जाती है. क्या इस कला नें कभी हमें अपनी चुम्बकीय एवं मायावी शक्ति से अपनी ओर आकर्षित नहीं किया है ? क्या इस कला नें हमारे श्रांत-क्लांत तन-मन को कभी नव स्फूर्ति, शक्ति, उत्साह, सुख व शान्ति से भर नहीं दिया है ? क्या इस कला नें किसी दिव्य औषधि की तरह कभी हमारी उदासी और खिन्नता को दूर कर हमें प्रसन्नता का स्वास्थ्य लाभ नहीं दिया है ? इस अद्भुत कला से वंचित रहकर ही हम अपने दुर्भाग्य को स्वयं आमंत्रित करते हैं. आधुनिक भौतिक जीवन-शैली नें हमें प्रकृति की इस अमूल्य कला से दूर कर दिया है जिसके कारण हम नाना शारीरिक-मानसिक व्याधियों से ग्रस्त हो दुख और हताशा का जीवन जीने के लिए बाध्य हो गए हैं. 
अभी मैंनें कला के एक पक्ष की प्रसंगवश चर्चा की है. कला का एक शरीर-क्रियात्मक पक्ष भी है. आप किंचित ध्यान देंगे तो स्पष्ट हो जायेगा कि जैसे-जैसे हम कविता पढ़ते या सुनते जाते हैं वैसे-वैसे हमारे मस्तिष्क में शब्द या ध्वनि आकार ग्रहण करती है. इसी तरह कहानी या उपन्यास पढ़ते समय भी शब्द आकार ग्रहण करते रहते हैं....अर्थात कला की स्थितिज ऊर्जा मस्तिष्क में अपने गतिज स्वरूप में प्रकट होती रहती है. इस प्रकार की कला ज़ो मस्तिष्क को अधिक क्रियाशील बनाती है ...एक्टिव आर्ट है. इसके विपरीत चल-चित्र जगत की कला मस्तिष्क को किंचित उद्वेलित या रंजित भर ही कर पाती है ...अर्थात यह मस्तिष्क को अधिक  रचना-क्रियाशील  नहीं बनाती ....इसे हम पास्सिव-आर्ट की संज्ञा दे सकते हैं.
कला के लिए मैं जानबूझकर Active एवं Passive शब्दों का प्रयोग कर रहा हूँ और इस धृष्टता  के लिए सभी से क्षमाप्रार्थी भी. यदि मैं सक्रिय एवं निष्क्रिय शब्दों का प्रयोग करता तो किंचित कोई झमेला खड़ा हो सकता था कि कला भी कहीं निष्क्रिय होती है भला ! किन्तु सचमुच, विचार करने की बात है ....क्या आज  हम कला को निष्क्रिय नहीं बनाते चले जा रहे? 
"कला" वस्तुतः अमूर्त विचारों की मात्र मोहक अभिव्यक्ति ही नहीं अपितु वह सोद्देश्य बौद्धिक परिणति भी है. यही तो वे तत्व हैं ज़ो कला को एक्टिव एवं चिर बनाते हैं. जिस कला में इन दोनों तत्वों का अभाव होगा वह कला क्षणिक रंजक एवं पास्सिव मात्र होगी. दूर-दर्शन आदि के कार्यक्रम सूचनात्मक, रंजक एवं कभी-कभी विकृत भी होते हैं .....इनमें प्रदर्शित कला मन-मस्तिष्क को प्रखर नहीं बनाती. दृश्य हमारी दृष्टि के सामने होते हैं. शब्दों या ध्वनि से मन में प्रतिक्रिया हो कर दृश्य रचना जैसी कोई स्पष्ट प्रक्रिया नहीं हो पाती. अर्थात सब कुछ "तैयार" रहता है. यह ठीक गणित और इतिहास पढ़ाने जैसा है. गणित हमारे मस्तिष्क को Active बनाता है जबकि इतिहास के मामले में मस्तिष्क "Passive" रहता है. मस्तिष्क में घटने वाली Passive घटना का स्पष्ट परिणाम यह होता है कि हमारा मन-मस्तिष्क कल्पनाशील और प्रखर नहीं बन पाता. इसीलिये मैंने कला को Active  और Passive -इन दो वर्गों में बाटने का दुस्साहस किया है.
मस्तिष्क में कला की रचना-यात्रा विचारों-भावनाओं से कला की ओर एवं पुनः कला से विचारों-भावनाओं की दिशा में होती है. कला की शक्ति का यह स्थितिज एवं गतिज स्वरूप है. विचार और भावनाएं जब तक मन में हैं ...वे अमूर्त रहते हैं ....जब प्रकट होते हैं तो कला बन जाते हैं. यह प्रक्रिया तो कलाकार तक ही सीमित रहती है, किन्तु कलाकार के अतिरिक्त अन्य लोगों के मन में भी कला अपनी प्रतिक्रियाओं से पुनः विचार एवं भाव उत्पन्न करती है. अतः इस रूप में कला उत्प्रेरक भी है...अर्थात कला लोगों के लिए उत्प्रेरण का कार्य कर उनके मन में नवीन विचारों-भावों की सृष्टि करती है. दूसरे शब्दों में अमूर्त से मूर्त एवं पुनः मूर्त से अमूर्त की ओर कला की रचना-यात्रा होती रहती है. अब यदि कला बौद्धिक एवं उद्देश्यपूर्ण भी हो तो वह निश्चित ही अपनी रचना-यात्रा में सफल होगी. 
ऐसा माना जाता है कि कला हमारे विचारों को प्रभावित करती है और विचार हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं. आज मनुष्य नें भौतिक ज्ञान में ज़ो उपलब्धियां प्राप्त की हैं उसके परिणामस्वरूप हमारे बच्चों को पाठशालाओं में "सूचनात्मक-ज्ञान" ही रटाया जा रहा है. Active art  से  दूरी के कारण यह ज्ञान उनमें सद-विचार नहीं जगा पाता. बच्चे ख़ूब सूचनाएं एकत्र करते हैं ...उन्हें रटते हैं ...फिर परीक्षा में सूचनाओं का यथाशक्ति वमन कर देते हैं. आज यह वमन ही उनकी योग्यता का माप-दंड बन गया है. इसी योग्यता के बल पर आगे चलकर वे बड़े-बड़े अधिकारी बनते हैं और आर्थिक, भौतिक, सामाजिक....चारित्रिक.......हर प्रकार के अपराधों के लिए राजाज्ञा प्राप्त कर लेते हैं. ऐसे लोग समाज, राष्ट्र और मानवता...सभी के लिए घातक होते हैं. कारण .....? कारण यह है कि वे या तो कला से दूर रहे ...या Passive कला के प्रेमी रहे जिसने उन्हें विचार नहीं दिए...भावनाएं नहीं दीं और उन्हें अच्छी दिशा में गति करने की प्रेरणा नहीं  दी. 
कुछ लोग मानते हैं कि कला तो हृदय का विषय है और ज्ञान मस्तिष्क का. मुझे इस धारणा में कुछ आपत्ति है. एक चिकित्सक होने के नाते मैं मानता हूँ कि कला के बीज मस्तिष्क में उत्पन्न होते हैं और हृदय की कोमलता से सिंचित हो अंकुरित...पल्लवित...एवं पुष्पित होते हैं ईश्वर नें इतनी जटिल एवं परा-वैज्ञानिक सृष्टि की रचना कर इसका प्रमाण भी हमें दे दिया है. इस प्रकार से यह हम सबके लिए एक सन्देश भी है कि कला-रहित ज्ञान मनुष्य का कल्याण नहीं ...विनाश ही करेगा. ओसामा-बिन-लादेन, परवेज़ मुशर्रफ, जार्ज बुश, सद्दाम हुसैन और एरिअल शेरोन जैसे निष्ठुर ज्ञानियों को ईश्वर की अपरिमित "सृष्टिरूपी-कला" के विभिन्न रागों से सीख लेना चाहिए. ये लोग कला और जीवन दोनों को निरंतर क्षति पहुंचाए चले जा रहे हैं. अब अपने सुखमय जीवन के लिए विवेकपूर्ण निर्णय लेने की बारी हमारी है.      

          
            

3 टिप्‍पणियां:

JC ने कहा…

“...जिस प्रकार "अमूर्त विचार" मूर्त भाव में प्रकट होकर कला बन जाते हैं उसी तरह "अव्यक्त शक्ति" व्यक्त भाव में प्रकट होकर ब्रह्माण्ड बन जाती है. दूसरे शब्दों में कहें तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ईश्वर रचित कला ही तो है…”, सुन्दर अभिव्यक्ति ! धन्यवाद्!

आपने विचार अथवा विचारों को स्वयं एक पञ्च-तत्वों से गढ़ी गयी मूरत के, यानी मानव के, मस्तिष्क-रुपी कंप्यूटर में प्राप्त होने के उपरांत ही विचारों का तदनुसार अन्य मूर्त भाव में प्रगट होना दर्शाया...फिर प्रश्न उठेगा कि ये विचार आते कहाँ से हैं (शरीर के भीतर ही से?)? और पृथ्वी पर उपस्थित अनंत प्राणी हैं, उन सभी को एक से क्यूँ नहीं आते? यदि उनमें कुछ समानता है तो वो है पापी पेट, शरीर में सूर्य के सार के स्थान (?) पर आधारित अनंत काल-चक्र की, और इससे बाहर निकलने के लिए आकाश की (अंतरिक्ष की?) ओर छलांग लगाने की आवश्यकता,,, वृक्ष, पक्षी आदि समान,,, किन्तु 'जहाज के पंछी समान बार बार वापिसी'?) ...इत्यादि, इत्यादि...

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

आपकी जिज्ञासा उचित ही है. विचारों की उत्पत्ति के विषय पर मैं कहूंगा कि वस्तुतः कुछ भी उत्पन्न नहीं होता ...न मैटर ..न एनर्जी. सब कुछ रूपांतरित ही होता है. विचार भी उत्पन्न नहीं होते.....पानी के बुलबुलों की तरह एपियर और डिसएपियर होते रहते हैं, इसीलिये इनमें नवीनता भी नहीं होती...ज़ो नवीनता हमें प्रतीत होती है वह सापेक्ष है एब्सोल्यूट नहीं. एक बायोकेमिकल घटना होने के कारण विचार जड़ में नहीं प्रकट हो सकते...एक उपयुक्त माध्यम चाहिए इसके लिए ज़ो कि जीवित प्राणियों में ही मिल पाता है. अब व्यावहारिक रूप में जिस भिन्नता की बात आपने की है वह माध्यम की विविधता पर निर्भर है जैसे जलतरंग से निकलने वाली ध्वनियाँ प्यालों के आकार और जल के स्तर पर निर्भर होती हैं.
विचारों में भिन्नता ही नहीं मिलती, समानता भी मिलती है.......दैनिक जीवन में इसका अनुभव करते रहते हैं हम आप.
मैंने जिस अमूर्त की बात की है वस्तुतः वह एक स्थिति है ....विचारों के प्रकट होने की स्थिति......विचार धीरे-धीरे आकार लेते हैं .....स्पष्ट होते हैं किसी माध्यम में.

JC ने कहा…

जिसे मैं मैं कहता हूँ, उसका एक इतिहास है,,,वो एक सदी विशेष में, एक 'ब्राह्मण परिवार' के घर 'अवतरित' हुआ, उसे एक विशेष नाम दिया गया,,,किन्तु हमारे हिन्दुस्तानी कुत्ते के पिल्ले को पहले दिन से अंग्रेजी नाम से 'किम' पुकारा गया और उसने भी उसे धारण कर लिया,,,और मजा यह है कि जिस दिन उसका निधन हुआ हमारे (पिताजी के भरे पूरे परिवार वाले) घर में खाना नहीं बना,,,उसकी मृत्यु पर सब रोये जैसे परिवार के ही किसी सदस्य की मृत्यु हुई हो!

निर्णय लिया गया कि अब कोई कुत्ता नहीं पालेंगे, बहुत मोह हो जाता है,,,किन्तु उसके बाद भी दो और कुत्ते पालने पड़े! या कहिये अज्ञानता वश हम 'ब्राह्मण' होते हुए भी जीवन के ('सत्य' के?) बारे में कुछ नहीं जानते!

जैसा उन्होंने देखा था और जिसके अनुसार उनके संस्कार बने, हमारे माता-पिता को हम ने पूजा-पाठ करते देखा बचपन से,,,और शहरी जीवन के साथ और समय के साथ थोडा बदलते भी...
हमारे आंगन में एक पारिजात (हर श्रृंगार) का वृक्ष था जिसके लाख फूल चुनने में हम बच्चे भी माँ की सहायता करते थे, जिन्हें महा-शिवरात्रि के दिन तक (?) वो शिव की मूर्ती पर चढ़ाया करती थी...किम की जिस दिन मृत्यु हुई, उसकी तबियत कुछ खराब थी और उस दिन सौभाग्य वश केवल मैं घर पर था,,,वो सोया था और मेरी कुर्सी से उसकी चेन बंधी थी,,, जब वो अचानक उठ उसे खींचने लगा तो मैंने ही उसकी चेन खोली थी और उसे आँगन की ओर जाते देखा था...जब मेरे चचेरे भाई कॉलेज से लौट उसे डॉक्टर के पास ले जाने हेतु आँगन में गए तो उन्होंने तुरंत लौट मुझे देखने को कहा,,,वो शाष्टांग प्रणाम करती मुद्रा में वृक्ष की ओर पैर किये स्वर्ग सिधार चुका था!...
कौन था वो सर्वप्रिय जो कुत्ते के रूप में हमारे परिवार का सदस्य बन ६ वर्ष रहा ??? हमारे दोस्त कहा करते थे कि यदि कोई चोर तुम्हारे घर साफ़ सुथरे वस्त्र धारण कर आये तो वो आराम से चोरी कर सकता है! वो केवल डाकिया और भिखारी पर ही भौंकता था!