रविवार, 2 जनवरी 2011

पुत्रेष्टि कामना यज्ञ -इच्छित संतान का एक सुलभ उपाय

पुत्र की लालसा ......वंश की निरंतरता के वाहक की लालसा ....सभी प्राणियों की मौलिक लालसा है. पर कुछ स्वार्थ आ गए बीच में, निरंतरता के वाहक रूप में केवल पुत्र को ही सामाजिक मान्यता मिल सकी. कुछ अन्य भी समस्याएं थीं जिनके कारण पुत्री की चाहत कम हुई और भ्रूण हत्यायों का अमानवीय दौर प्रारम्भ हुआ......परिणाम है-  लिंगानुपात की विकट समस्या. इस आलेख में हम श्रेष्ठ संतान ...मनवांछित संतान की प्राप्ति के वैज्ञानिक उपायों पर चर्च करेंगे.
       जीवन के प्रारम्भ पर यदि ध्यान दें तो सारी प्रक्रिया बड़ी अद्भुत और विस्मयकारी प्रतीत होती है. यह प्रक्रिया विज्ञानात्मक तो है ही ,कलात्मक भी है. यह बात अलग है कि इसके कलात्मक पक्ष पर बहुत कम लोग गंभीरता से ध्यान दे पाते हैं. विज्ञान और कला में एक मूलभूत अंतर चेतना के बोध का होता है. विज्ञान की जटिलताएं लोगों को नीरस लग सकती हैं किन्तु कला तो सदैव ही सत्यम-शिवम्-सुन्दरम होती है. नव-जीवन के बीजारोपण के साथ यदि हम सत्यम-शिवम्-सुन्दरम के चेतन भाव का भी ध्यान रखें तो यह नैसर्गिक विज्ञान कलायुक्त हो जाता है. सत्य तो यह है कि कला हमारे जीवन को प्रारम्भ से ही अनुप्राणित करती एवं आनन्दमय बनाती आ रही है.
        इससे पूर्व कि हम यह विचार करें कि जीवन के बीजारोपण को कला के द्वारा किस प्रकार चित्रित कर रंगों से सजाया जा सकता है, यह सुनिश्चित कर लेना आवश्यक है कि क्या सचमुच ही जीवन का प्रारम्भ होता है ?
दार्शनिक सा प्रतीत होने वाला यह प्रश्न पूरी तरह भौतिक है. भौतिक विज्ञानी कहते हैं कि स्थूल पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता, यहाँ तक कि सूक्ष्म ऊर्जा भी कभी नष्ट नहीं होती...इन सबका रूपांतरण भर होता है. इसका अर्थ यह हुआ कि जन्म और मृत्यु भी रूपांतरण के ही परिणाम हैं, इस प्रक्रिया में नष्ट कुछ भी नहीं होता. पाञ्च-भौतिक शरीर मृत्यु के पश्चात अंततः मिट्टी में मिलकर एकाकार हो जाता है और उसके अन्दर की प्राण-ऊर्जा किसी दूसरे पाञ्च-भौतिक शरीर में स्थानांतरित हो जीवन की निरंतरता को बनाए रखती है. दूसरे शब्दों में, रज एवं शुक्र ( ज़ो स्वयं में पाञ्च-भौतिक एवं प्राणयुक्त हैं ) तो जीवन की परम्परा हैं, प्रारम्भ का कारण नहीं. Sperm and ovum  represent the two parts of the human being in the miniature form.In the fallopian tube they get united and develop in the bed of uterus . धारित गर्भ रूपांतरण भर है, नवीन सृष्टि नहीं. स्त्री और पुरुष भी इसके माध्यम भर हैं.
         हम लोक व्यवहार में देखते हैं कि एक अच्छा कुम्भकार गीली मिट्टी को विविध रूप प्रदान कर सकता है. यह विविधता उसकी कलात्मक अभिरुचि एवं कल्पनाशीलता पर निर्भर करती है. मिट्टी के पात्र  एवं विभिन्न आकर्षक खिलौने या सजावट की वस्तुएं मिट्टी का रूपांतरण भर ही तो हैं. विविधता तो केवल कला और कल्पना में ही है. जन्म और मृत्यु भी जब रूपांतरण ही हैं तो क्या कला के द्वारा हम उसे शिव और सुन्दर नहीं बना सकते !
        गर्भाधान का पूर्व कर्म है -"काम". पर यहाँ इसे संकुचित अर्थों में न लिया जाय.....यह Desire है ...म्रत्यु के पश्चात भी अपने अंश के जीवित होने की चाहत ....एन-केन प्रकारेण कभी न मरने की चाहत. तो इतने बड़े उद्देश्य को पूरा करने के लिए उपाय भी विशिष्ट ही होने चाहिए. "काम " कला है और जीवन का कारण भी ...इसलिए यह महत्त्वपूर्ण भी है.
         भारतीय दर्शन हमें बताते हैं कि कारण के अनुरूप ही कार्य (उसका परिणाम ) फलित होता है; अर्थात जैसा कारण होगा उसी के अनुरूप उसका परिणाम भी होगा. दूसरे शब्दों में, जैसा बीज होगा वैसा ही वृक्ष होगा. क्या यह आश्चर्य नहीं कि आज हम उत्तम कारण के बिना ही उत्तम परिणाम की आशा करने लगे हैं ! यह विडम्बना ही है कि हम अपने जीवन के अन्यान्य व्यापारों में तो उत्तम परिणामों के लिए उत्तम संसाधनों-कारणों की योजना कर लेते है किन्तु उत्तम संतान हेतु उत्तम कारणों-उपादानों की उपेक्षा कर रहे हैं. शताब्दियों पूर्व लोग इच्छित संतान हेतु सद्प्रयत्न और तप आदि करते थे, कालान्तर में लोगों नें इस विज्ञान सम्मत कला परम्परा का परित्याग कर दिया जिसके परिणामस्वरूप आज की मानव संतति अनिच्छित और निराशाजनक है. उत्तम कारण का परिणाम निश्चित रूप से उत्तम ही होगा; पहले हम उत्तम कारणों की योजना के लिए स्वयं को संकल्प के साथ प्रस्तुत तो करें 
         धर्मप्राण देश भारत में प्रतिदिन होने वाली भ्रूण हत्याओं नें हमारी नैतिकता, सभ्यता एवं धार्मिकता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिए हैं. स्त्री-पुरुष में लिंग-भेद रहित समानता के अधिकार की वकालत एवं सामाजिक जागरूकता के ढिंढोरे के पश्चात भी समाज में पुत्री की अपेक्षा पुत्र संतान के प्रति अधिक चाहत देखी गयी है. इसी व्यामोह के कारण भ्रूण-लिंग-परीक्षण एवं तदुपरांत अनिच्छित भ्रूण की ह्त्या जैसे अमानवीय अपराधों की समाज में बाढ़ आयी हुई है. मेरा निवेदन है कि भ्रूण लिंग की अनिश्चितता समाप्त करने एवं इच्छित संतान प्राप्त करने की वैज्ञानिक कला के उपलब्ध होते हुए भी अनिश्चितता की अंधी गली में जाने कोई आवश्यकता नहीं है. आवश्यकता है तो केवल इस कला को जानने और और सीखने की. मनोवांछित संतान प्राप्त करने की इस वैज्ञानिक कला के विभिन्न चरणों का अनुसरण करके किया गया गर्भाधान निश्चित ही मनोनुकूल होगा. ऋषियों द्वारा संस्कारित इस कला के विभिन्न चरणों की चर्चा के लिए प्रतीक्षा करें....आते हैं एक विराम के पश्चात.        
       

2 टिप्‍पणियां:

JC ने कहा…

जब से आधुनिक मानव ने चन्द्रमा पर पैर रख लोक-परलोक यात्रा को संभव जाना,,,और मन-रुपी पतंग को ढील देते हुए यह पाया कि यदि प्रकाश से भी तीव्र गति से कोई जाए तो वो भूतकाल में पहुँच जाएगा (जैसे हम भी प्राचीन ज्ञानियों, ऋषि-मुनियों के छोड़े गए कुछेक संकेत आदि द्वारा भूतकाल में यात्रा संभव पाते हैं? कि कैसे वे पलक झपकते ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँच जाते थे,,,किन्तु हम अपने आपको ऐसा करने में असमर्थ पाते हैं) ! तो आजकल एक चर्चा का विषय हो गया 'grandfather syndrome',,यानि अपने दादा की ही हत्या (क्यूंकि हमारी दुर्गति का वो ही कारण होने से 'न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी?)!
पुनश्च: किन्तु जो अजन्मा और अनंत माना जाता है वो क्या करे? वो तो आत्महत्या भी नहीं कर सकता! और वो ऐसा करे भी क्यूँ? वो तो दुःख-सुख आदि द्वैत अनुभूतियों से परे है! (और गीता में उपदेश दिया कृष्ण ने कि मानव हर हाल में स्थित्प्रग्य रहे, क्यूंकि वो वास्तव में आत्मा है, परमात्मा का ही एक अंश...

Satish Saxena ने कहा…

आपके ब्लॉग की कुछ पोस्ट पढ़ीं ...कुछ अलग और बेहद आवश्यक काम कर रहे हैं ..यह काम समय के साथ अपना स्थान अलग बनाने में कामयाब होगा ! हार्दिक शुभकामनायें !