गुरुवार, 10 मार्च 2011

पुत्रेष्टि कामना यज्ञ -इच्छित संतान का एक सुलभ उपाय .....2



मन वांछित संतान प्राप्ति के उपायों पर चर्चा के क्रम में हम चरणबद्ध तरीके से अपनी बात रखने का प्रयास करेंगे. इस यज्ञ के विभिन्न चरण इस प्रकार हैं -

१- यथेष्ट  संतान प्राप्ति का संकल्प   - यह प्रथम एवं अति महत्त्वपूर्ण चरण है. किसी कार्य का संकल्प हमें मन से उस कार्य के प्रति निष्ठावान बनाता है और कामना जब संतान की हो तब तो यह निष्ठा अपरिहार्य हो जाती है. संकल्प के परिणामस्वरूप उत्पन्न संतान कभी अवांछित नहीं होती, जबकि संकल्प के बिना उत्पन्न संतान अवांछित एवं परिवार-समाज और राष्ट्र पर भार स्वरूप होती है. संकल्प हमें निष्ठावान, ऊर्जावान एवं कर्मोन्मुख बनाता है अतः संतानोत्पत्ति से पूर्व उत्तम एवं मनोवांछित संतान की भावना के साथ पति-पत्नी को शुद्ध होकर संकल्प लेना चाहिए. इस संकल्प के लेते ही अनेकों प्रतिकूल परिस्थितियों एवं बाधाओं के निवारणार्थ स्वतः ही शक्ति का संचार होने लगता है. यह शक्ति ही मनोवांछित संतान प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करती है. प्रायः लोग मनोवांछित संतान की आशा तो करते हैं किन्तु संकल्प के अभाव में उपयुक्त साधन व् कर्म का निर्णय नहीं कर पाते, परिणामस्वरूप वे संतानोत्पत्ति हेतु जिस मार्ग का अनुसरण करते हैं वह नितांत पशुतुल्य होता है. आज ANOMALOUS (गर्भ में असामान्य विकास के कारण उत्पन्न विकृत नवजात शिशु ) जातकों की संख्या बढ़ती ही जा रही है, इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है. सूर्यवंशी राजा दिलीप ने संतानोत्पत्ति हेतु कुलगुरु वशिष्ठ से विधिवत मार्गदर्शन लेकर गौ के सान्निध्य में वनगमन कर सपत्नीक तप किया था. निष्ठापूर्वक संकल्प के साथ किया गए कठोर प्रयास को तप कहते हैं. आज जो fertility  centers  खुले हुए हैं वहां भी कोई कम तप नहीं किया जाता ....पर वह एकपक्षीय तप है ...केवल आंशिक उद्देश्य को लेकर किया गया तप निर्दुष्ट तप की श्रेणी में नहीं आता इस कारण इस तप के परिणाम हमें बहुत आशान्वित नहीं करते
       कुलगुरु वशिष्ठ की योजना का उद्देश्य था ताजी वनौषधियों से पोषित गौ-दुग्ध तथा पंचगव्य का सेवन, साथ ही वन की शुद्ध वायु में  चिंतामुक्त वास. यह सब संकल्प शक्ति के बल पर ही संभव हो सका. दुर्भाग्य से वर्त्तमान समय में भ्रूण के लिंग परीक्षणोपरांत भ्रूण-हत्याओं की बाढ़ के पीछे भी मनोवांछित संतानप्राप्ति की संकल्पहीन ऐषणा ही है. 

२- क्षेत्र निर्माण -  खेत में बीज बिखरा देने मात्र से ही उत्तम अंकुरण और उत्तम फसल की आशा नहीं की जा सकती. जिस प्रकार कृषक उत्तम अनाज के अधिकतम उत्पादन हेतु बीज बोने से पूर्व खेत से खर-पतवार निकालकर अच्छी तरह जुताई करता है एवं गोबर की खाद डालकर उसे उर्वर बनाता है उसी तरह उत्तम संतान हेतु गर्भाधान से पूर्व ही क्षेत्र (स्त्री के प्रजनन अंग ) को विभिन्न साधनों से निर्दुष्ट एवं उर्वर बनाया जाना आवश्यक है. न केवल क्षेत्र अपितु बीज (पुरुष के शुक्र ) को भी श्रेष्ठ बनाया जाना चाहिए ...और इन सबके लिए आयुर्वेद में पर्याप्त वैज्ञानिक उपायों का विवरण उपलब्ध है. क्षेत्र एवं बीज की श्रेष्ठता के अभाव में गर्भाधान में असफलता, गर्भस्राव, गर्भपात, या कदाचित गर्भ ठहरने पर भी अल्पजीवी, दुर्बल, विकलांग, मंदबुद्धि, या सदा रुग्ण संतान (due to genetic disorder, auto -immune disorder ,or immune insufficiency ) जैसे दुष्परिणाम देखने को मिलते हैं. 
   व्यवहार में देखा गया है कि उत्तम क्षेत्र हेतु असमान गोत्र की २० वर्ष से 30 वर्ष की वय प्राप्त  धर्मपत्नी  ही श्रेष्ठ होती है . अनेक वैज्ञानिक सर्वेक्षणों में पाया गया है कि  अल्पवय या अधिक वय प्राप्त स्त्रियों  की  संतानों  में  विभिन्न  शारीरिक -मानसिक  विकृतियाँ  होने  की  संभावनाएं अधिक  होती  हैं. यह भी आवश्यक है कि संतान चाहने वाले दंपति शरीर व मन दोनों से स्वस्थ्य हो, एक-दूसरे के प्रति समर्पित एवं सद्विचारों वाले हों. ये बातें बड़ी साधारण सी प्रतीत होती हैं किन्तु इनका महत्त्व उतना ही अधिक है. सात्विक आहार-विहार (food and conducts ) के सेवन से प्रशस्त वय वाली स्त्री का क्षेत्र उपयुक्त (उर्वर) एवं शुद्ध हो जाता है. दुर्भाग्यवश, जो स्त्रियाँ बारम्बार गर्भपात या गर्भस्राव ( habitual abortion  and  miscarriage ) से पीड़ित हैं उन्हें अन्य उपायों के साथ-साथ अपने गर्भाशय की शुद्धि हेतु गर्भाधान के कुछ माह पूर्व से देवदार्वाद्यासव का सेवन एवं योनि में दशमूल तेल का पिचु (swab) धारण करना चाहिए. सात्विक आहार-विहार क्षेत्र व बीज दोनों को पुष्ट एवं उपयुक्त बना देता है. अतः गर्भाधान के कुछ माह पूर्व से ही पति-पत्नी को तामसिक आहार-विहार का त्याग कर गो-दुग्ध, मधु, शाकाहार एवं शुद्ध वायु का सेवन प्रारम्भ कर देना चाहिए जिससे निर्दुष्ट डिम्ब एवं शुक्र का निर्माण हो सके.  


३- गर्भाधान कर्म -  गर्भाधान एक जटिल किन्तु प्रकृति की एक सुव्यवस्थित प्रक्रिया है जो स्त्री-शरीर में पुरुष संसर्गोपरांत घटित होती है. स्त्री-पुरुष वस्तुतः प्रजनन में सक्षम दो ऐसी विपरीत शक्तियां हैं जो प्रजनन को अपनी इच्छानुसार संचालित कर सकने में सक्षम हैं. यह क्षमता एक कला है ...शुद्ध वैज्ञानिक कला. सामान्य बोलचाल में "काम" का एक अर्थ "कर्म" भी है. यह आदि कर्म है जिसमें जीवन की निरंतरता है ..जीवन का हस्तांतरण है. यह "कर्म" कला के साथ-साथ विज्ञान भी है अतः पहले थोड़ी सी चर्चा विज्ञान के बारे में ....


पुरुष के शुक्र एवं स्त्री के डिम्ब को छोड़कर शरीर की शेष समस्त कोशिकाओं को नियंत्रित करने वाले केन्द्रक में गुणवाहक गुणसूत्रों की संख्या ४६(२३ के जोड़े में) होती है. यह गुणसूत्रों की पूर्ण संख्या है जो शुक्र एवं डिम्ब के निर्माण के समय उनमें आधी रह जाती है: अर्थात शुक्र एवं डिम्ब गुणसूत्रों के मामले में पूर्ण न होकर अर्ध होते हैं. उनका यही अधूरापन पूर्णता के लिए इच्छुक रहता है. पूर्णता की यह इच्छा ही स्त्री-पुरुषों को जिस कर्म के लिए प्रेरित करती है उसे ही "काम" कहते हैं. काम की विभिन्न स्थितियां एवं उसका स्वरूप एक "विशिष्ट कर्म" की विभिन्न स्थितियां एवं उसका स्वरूप हैं . इस कर्म के परिणाम  स्वरूप  डिम्ब एवं शुक्र में अवस्थित "प्रकृति एवं पुरुष" नामक विपरीत गुणों वाली किन्तु पूरक शक्तियां एक-दूसरे को अंगीकार कर गर्भ के रूप में फलित एवं विकसित होती हैं. इस गर्भ में प्रकृति एवं पुरुष दोनों की आधी-आधी शक्तियाँ एवं गुण रहते हैं - यही अर्धनारीश्वर का  वैज्ञानिक स्वरूप है. 
       सामान्य कोशिका में गुणसूत्रों के २२ जोड़े तो कायिक होते हैं किन्तु २३ वां जोड़ा लिंग निर्धारक होता है.डिम्ब एवं शुक्र कोशिका में ये गुणसूत्र जोड़ों के रूप में न होकर एकांश पृथक एवं संख्या में अर्ध होते हैं. अर्थात स्त्री डिम्ब कोशिका के केन्द्रक में सदैव २२ कायिक अर्धसूत्र एवं २३ वां लिंग अर्धसूत्र होता है जो सदैव "प्रकृति" गुण वाला होता है. इसी तरह पुरुष शुक्र कोशिका के केन्द्रक में २२ कायिक अर्धसूत्र एवं  २३ वें लिंग अर्धसूत्र में "प्रकृति" या "पुरुष" गुण वाला कोई एक गुणसूत्र होता है. आधुनिक विज्ञान में "प्रकृतिगुणसूत्र" को "X " एवं "पुरुषगुणसूत्र" को "Y " संकेताक्षरों से इंगित किया गया है. 


      "प्रकृति" नामक गुणसूत्र 
चेतनतत्व रहित (insentient), 
त्रिगुणात्मक ( the principles of enlightenment , activity and inertia ...and hence the प्रकृति is active  ), 
उत्पादक शक्तियुक्त (creative), 
प्रसवधर्म युक्त (generative)
तथा सुख-दुःख युक्त (endowed with pains and pleasures) गुणों वाला होता है. 


जबकि "पुरुष" नामक गुणसूत्र 
चेतनावान ( conscious), 
निर्गुण ( actionless), 
उत्पादकशक्ति रहित (not creative ), 
अप्रसवधर्मा (not generative ) तथा
स्थितिप्रज्ञ ( remains  unaffected 
 in pains and pleasures) गुणों वाला होता है. 


स्त्री के अंडाशय से प्रतिमाह एक डिम्ब परिपक्व होकर निकलता है किन्तु पुरुष के प्रति मि.ली.वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या ५० मिलियन तक हो सकती है जिनमे से कुल शुक्राणुओं की आधी संख्या "प्रकृति" (२२+x) एवं आधी संख्या "पुरुष" ( २२+y ) गुण सूत्रों वाली होती है. किन्तु इनमे से कोई एक ही शुक्राणु गर्भाधान क्रिया में सफल हो पाता है. "प्रकृति" गुणसूत्र वाला शुक्र पुत्री संतान हेतु एवं "पुरुष" गुण सूत्र वाला शुक्र पुत्र संतान हेतु उत्तरदायी होता है. गर्भाधान हेतु स्त्रीयोनि में पहुंचे शुक्राणुओं में डिम्ब (जो कि डिम्ब वाहिनी में धीमी गति से गर्भाशय की दिशा में कहीं बढ़ रहा होता है ) तक पहुँचने की होड़ प्रारम्भ हो जाती है. प्रकृति एवं पुरुष दोनों ही लिंग निर्धारक गुणसूत्रों वाले शुक्राणु इस प्रतियोगिता में भाग लेते हैं, जो शुक्राणु डिम्ब तक पहले पहुँचने में सफल होता है वही निषेचन में भाग लेता है और अपने अनुरूप लिंग वाली संतान को जन्म देता है. सामान्यतः  ''प्रकृति" गुणसूत्र वाले शुक्राणुओं की गति "पुरुष" गुणसूत्र वाले शुक्राणुओं की अपेक्षा तीव्र होती है. उनकी metabolism एवं capacitation ( गर्भाधान करने की शक्ति) भी अपेक्षाकृत अधिक होती है. इसका कारण वीर्य में उपस्थित अन्य पदार्थों का अपनी त्रिगुणात्मक शक्ति से उनके द्वारा शीघ्रता एवं पूर्ण क्षमता से उपयोग करना है. वीर्य में उपस्थित अन्य पदार्थ यथा - Fructose , Phosphatases , Spermine , Choline , Ergothioneine , Citric acid , Lipid , Protein materials , Hyaluronidase, creatine , creatinine ,epinephrine , Nor -epinephrine , and Inositol आदि शुक्राणुओं में होने वाली metabolism एवं उनके क्रियाशील बने रहने के लिए आवश्यक हैं. 
      पुरुष शरीर से निकलकर स्त्री योनि में पहुँचने के पश्चात जीवित रहने के लिए शुक्राणुओं में Fructose एवं Oxygen की उपस्थिति में metabolism होती है. 
शुक्राणु के जीवन एवं उनकी अधिकतम गतिशीलता के लिए 
Fructose एवं Oxygen की पर्याप्त मात्रा का होना आवश्यक है. अति मैथुन से वीर्य में Fructose की मात्रा में कमी होती है: अतः पुत्र संतान हेतु तीन तथ्य प्रमुख हैं -


१- सीमित मैथुन द्वारा वीर्य में Fructose की पर्याप्त मात्रा बनाए रखी जाय,
२- Oxygen की अतिरिक्त मात्रा द्वारा "पुरुष" गुणसूत्र वाले शुक्राणुओं की metabolism एवं गतिशीलता बढाने का प्रयास किया जाय एवं
३- "पुरुष" गुणसूत्र वाले शुक्राणुओं की Capacitation  बढ़ाई जाय.


इन तीनों कार्यों के लिए कुछ साधारण से उपाय हैं और यही गर्भाधान की कला भी. ये उपाय हैं - गोदुग्ध, मधु, शाकाहार, नित्य प्राणायाम, शुद्ध वायु सेवन, तनाव मुक्त जीवन, क्रोध का परित्याग एवं ब्रह्मचर्य व्रत का पालन. स्त्री-पुरुष संसर्ग के समय, "पुरुष" गुणसूत्र वाले शुक्राणुओं को अधिक क्षमतावान बनाने की दृष्टि से पूर्णमासी की रात्रि या शुक्ल पक्ष में पुरुष को वामपार्श्व (left lateral side ) में लेट कर अपने अभिमुख लेटी हुयी धर्म पत्नी से शास्त्र सम्मत विधि से समागम करना चाहिए. 
         वामपार्श्व में लेटने से दक्षिण नासिका (सूर्य नाडी ) क्रियाशील होती है: यह प्रक्रिया "पुरुष" गुणसूत्र वाले शुक्राणुओं को अतिरिक्त oxygen उपलब्ध कराकर उन्हें अधिक गतिशील बना देती है जिससे वे अपनी पूर्ण क्षमता के साथ डिम्ब तक पहुँच कर निषेचन में सफल होते हैं. 
इस विधि से समागमोपारांत स्त्री को पीठ के बल सीधे शांत चित्त लेटकर योनि की मांसपेशियों में बारम्बार संकुचन करना चाहिए, यह प्रक्रिया योनि में पहुंचे शुक्राणुओं की Capacitation में वृद्धि करते हैं. 
ध्यान रहे की पुत्र प्राप्ति हेतु समागम युग्म रात्रियों में तथा मासिक धर्म के दसवें दिन से प्रारम्भ करना चाहिए. 
                                     
                                  (अगली बार पुंसवन एवं गर्भ पोषण की कला के बारे में )              

2 टिप्‍पणियां:

Satish Saxena ने कहा…

अभी तो शुभकामनायें स्वीकारें , विषय मेरी रूचि और बुद्धि से परे है सो कुछ भी कह नहीं पा रहा !
सादर

प्रेम सरोवर ने कहा…

सूचनापरक जानकारी प्रदान करने के लिए धन्यवाद।मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है।