tag:blogger.com,1999:blog-5634922597906551265.post2408955991853835765..comments2023-10-08T17:57:00.440+05:30Comments on The ancient science and art of life: कला और जीवनबस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttp://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comBlogger3125tag:blogger.com,1999:blog-5634922597906551265.post-11605116270885617752011-01-21T17:32:58.950+05:302011-01-21T17:32:58.950+05:30जिसे मैं मैं कहता हूँ, उसका एक इतिहास है,,,वो एक स...जिसे मैं मैं कहता हूँ, उसका एक इतिहास है,,,वो एक सदी विशेष में, एक 'ब्राह्मण परिवार' के घर 'अवतरित' हुआ, उसे एक विशेष नाम दिया गया,,,किन्तु हमारे हिन्दुस्तानी कुत्ते के पिल्ले को पहले दिन से अंग्रेजी नाम से 'किम' पुकारा गया और उसने भी उसे धारण कर लिया,,,और मजा यह है कि जिस दिन उसका निधन हुआ हमारे (पिताजी के भरे पूरे परिवार वाले) घर में खाना नहीं बना,,,उसकी मृत्यु पर सब रोये जैसे परिवार के ही किसी सदस्य की मृत्यु हुई हो! <br /> <br />निर्णय लिया गया कि अब कोई कुत्ता नहीं पालेंगे, बहुत मोह हो जाता है,,,किन्तु उसके बाद भी दो और कुत्ते पालने पड़े! या कहिये अज्ञानता वश हम 'ब्राह्मण' होते हुए भी जीवन के ('सत्य' के?) बारे में कुछ नहीं जानते! <br /><br />जैसा उन्होंने देखा था और जिसके अनुसार उनके संस्कार बने, हमारे माता-पिता को हम ने पूजा-पाठ करते देखा बचपन से,,,और शहरी जीवन के साथ और समय के साथ थोडा बदलते भी... <br />हमारे आंगन में एक पारिजात (हर श्रृंगार) का वृक्ष था जिसके लाख फूल चुनने में हम बच्चे भी माँ की सहायता करते थे, जिन्हें महा-शिवरात्रि के दिन तक (?) वो शिव की मूर्ती पर चढ़ाया करती थी...किम की जिस दिन मृत्यु हुई, उसकी तबियत कुछ खराब थी और उस दिन सौभाग्य वश केवल मैं घर पर था,,,वो सोया था और मेरी कुर्सी से उसकी चेन बंधी थी,,, जब वो अचानक उठ उसे खींचने लगा तो मैंने ही उसकी चेन खोली थी और उसे आँगन की ओर जाते देखा था...जब मेरे चचेरे भाई कॉलेज से लौट उसे डॉक्टर के पास ले जाने हेतु आँगन में गए तो उन्होंने तुरंत लौट मुझे देखने को कहा,,,वो शाष्टांग प्रणाम करती मुद्रा में वृक्ष की ओर पैर किये स्वर्ग सिधार चुका था!...<br />कौन था वो सर्वप्रिय जो कुत्ते के रूप में हमारे परिवार का सदस्य बन ६ वर्ष रहा ??? हमारे दोस्त कहा करते थे कि यदि कोई चोर तुम्हारे घर साफ़ सुथरे वस्त्र धारण कर आये तो वो आराम से चोरी कर सकता है! वो केवल डाकिया और भिखारी पर ही भौंकता था!JChttps://www.blogger.com/profile/05374795168555108039noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5634922597906551265.post-35008137764524668862011-01-21T12:26:00.179+05:302011-01-21T12:26:00.179+05:30आपकी जिज्ञासा उचित ही है. विचारों की उत्पत्ति के व...आपकी जिज्ञासा उचित ही है. विचारों की उत्पत्ति के विषय पर मैं कहूंगा कि वस्तुतः कुछ भी उत्पन्न नहीं होता ...न मैटर ..न एनर्जी. सब कुछ रूपांतरित ही होता है. विचार भी उत्पन्न नहीं होते.....पानी के बुलबुलों की तरह एपियर और डिसएपियर होते रहते हैं, इसीलिये इनमें नवीनता भी नहीं होती...ज़ो नवीनता हमें प्रतीत होती है वह सापेक्ष है एब्सोल्यूट नहीं. एक बायोकेमिकल घटना होने के कारण विचार जड़ में नहीं प्रकट हो सकते...एक उपयुक्त माध्यम चाहिए इसके लिए ज़ो कि जीवित प्राणियों में ही मिल पाता है. अब व्यावहारिक रूप में जिस भिन्नता की बात आपने की है वह माध्यम की विविधता पर निर्भर है जैसे जलतरंग से निकलने वाली ध्वनियाँ प्यालों के आकार और जल के स्तर पर निर्भर होती हैं. <br />विचारों में भिन्नता ही नहीं मिलती, समानता भी मिलती है.......दैनिक जीवन में इसका अनुभव करते रहते हैं हम आप.<br />मैंने जिस अमूर्त की बात की है वस्तुतः वह एक स्थिति है ....विचारों के प्रकट होने की स्थिति......विचार धीरे-धीरे आकार लेते हैं .....स्पष्ट होते हैं किसी माध्यम में.बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरनाhttps://www.blogger.com/profile/11751508655295186269noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5634922597906551265.post-69443120103084712792011-01-21T10:47:41.932+05:302011-01-21T10:47:41.932+05:30“...जिस प्रकार "अमूर्त विचार" मूर्त भाव ...“...जिस प्रकार "अमूर्त विचार" मूर्त भाव में प्रकट होकर कला बन जाते हैं उसी तरह "अव्यक्त शक्ति" व्यक्त भाव में प्रकट होकर ब्रह्माण्ड बन जाती है. दूसरे शब्दों में कहें तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ईश्वर रचित कला ही तो है…”, सुन्दर अभिव्यक्ति ! धन्यवाद्! <br /><br />आपने विचार अथवा विचारों को स्वयं एक पञ्च-तत्वों से गढ़ी गयी मूरत के, यानी मानव के, मस्तिष्क-रुपी कंप्यूटर में प्राप्त होने के उपरांत ही विचारों का तदनुसार अन्य मूर्त भाव में प्रगट होना दर्शाया...फिर प्रश्न उठेगा कि ये विचार आते कहाँ से हैं (शरीर के भीतर ही से?)? और पृथ्वी पर उपस्थित अनंत प्राणी हैं, उन सभी को एक से क्यूँ नहीं आते? यदि उनमें कुछ समानता है तो वो है पापी पेट, शरीर में सूर्य के सार के स्थान (?) पर आधारित अनंत काल-चक्र की, और इससे बाहर निकलने के लिए आकाश की (अंतरिक्ष की?) ओर छलांग लगाने की आवश्यकता,,, वृक्ष, पक्षी आदि समान,,, किन्तु 'जहाज के पंछी समान बार बार वापिसी'?) ...इत्यादि, इत्यादि...JChttps://www.blogger.com/profile/05374795168555108039noreply@blogger.com