सोमवार, 30 अक्टूबर 2017

साधक पित्त



साधक है साधता हृदय को तेज से

लक्ष्य है मेधा को संवारना नेह से ।

साधना में सत्व, रज है प्रवाह में

मिलती है गति, प्राण और व्यान से ।

मेधा में करता आलिंगन उदान है

तत्पर है साधक जो सिंचित स्नेह से ।

साधक पित्त के सन्दर्भ में हमारे चिंतन के दो विषय इस लेख में अभिप्रेत हैं – एक है साधक पित्त का स्थान और दूसरा है शरीर में उसके कार्य की प्रक्रिया । आयुर्वेदिक वाङ्गमयों के अनुसार साधक पित्त का स्थान है हृदय और कार्य है हृदय एवं चेतना को साधना ।

चेतना एक विशेष स्थिति है शरीरियों की जो उसे अजीवों और निर्जीवों से भिन्नता प्रदान करती है । चेतना एवं मन का स्थान है हृदय जो साधक पित्त, तर्पक कफ और प्राण एवं व्यान वात का भी स्थान है । साम्यावस्था में ये तीनों दोषभेद हृदय में अपने-अपने कार्य तो करते ही हैं, संयुक्तरूप से साझा कर्म भी करते हैं । हृदयस्थ साधक पित्त के “बुद्धिर्मेधाभिमानोत्साह” आदि कार्यों को देखकर यह अनुमान सहज ही किया जा सकता है ।

वात के रजोगुणबाहुल्य होने के कारण किसी भी कार्य के प्रारम्भ, परिणाम एवं अंत में अन्यान्य दोषभेदों के साथ वात का संयोग अपरिहार्य है । अस्तु, साधक पित्त की क्रियाशीलता में हृदयस्थ अन्य दोषभेदों की स्थिति पर चिंतन आवश्यक है । साधक पित्त जिस गाँव में रहता है उस गाँव के सम्पूर्ण परिदृश्य का अध्ययन किये बिना साधक पित्त की स्थिति और उसकी क्रियाशीलता को समझ पाना सम्भव नहीं है ।



एक महत्वपूर्ण कार्यस्थली के रूप में हृदय की भूमिका :-


            शरीररचना के भौतिक रूप में मन के अस्तित्व और उसकी स्थिति का निर्धारण जटिल है किंतु शारीरक्रिया के भौतिक रूप में मन के अस्तित्व को अस्वीकार किया जा सकना सम्भव भी नहीं है । मन के सूक्ष्म अस्तित्व और ज्ञानेन्द्रियों से उसके राग-विराग का सीधा प्रभाव मस्तिष्क की क्रियाओं एवं क्रियाशीलता में परिलक्षित होता पाया जाता है, यह हमारे नित्य अनुभव से सिद्ध है । चेतना एवं मन का स्थान हृदय है । मन को एक संयोजक तत्व और चेतना को एक अनुभवगम्य तत्व मानें तो इन दोनों का सम्बन्ध मस्तिष्क से होना स्पष्ट हो जाता है । मस्तिष्क और हृदय के गहरे सम्बन्ध को लौकिक दृष्टि से हम तब भी अनुभव करते हैं जब विभिन्न भावावेशों में प्रसन्नता, उत्साह, संतुष्टि एवं शांति जैसी वांछित और हृदयाघात, उच्चरक्तचाप, उग्रता, विक्षिप्तता, उन्माद और अनिद्रा जैसी अवांछित घटनाओं को होता हुआ देखते हैं । इन सभी कार्यों में हृदयस्थ दोषभेदों की संयुक्त क्रियायें कई जटिल प्रक्रियाओं की परिणाम हैं ।

साधक पित्त की कार्य प्रक्रिया :-  पाचन या परिणमन पित्त का प्रमुख कार्य है । हृदयस्थ चेतना के “बुद्धिर्मेधाभिमानोत्साह” आदि लक्षणों के परिणमन में साधक पित्त को क्रियाशील करने का कार्य हृदयस्थ प्राण एवं व्यान वात का है । साधक पित्त के क्रियाशील होने के पश्चात् उसकी क्रियाशीलता हृदयस्थ तर्पक कफ से प्रभावित हो परिणमन को प्राप्त होती है । शरीर की प्रत्येक कोशिका में क्रियाशील व्यानवात के सहयोग से साधक पित्त ही इस पूरी घटना के मस्तिष्क में प्रकाशन के लिये उत्तरदायी होता है । मस्तिष्क स्थित उदान वायु इस प्रकाशन का मूल्यांकन कर एवं उससे प्रभावित हो हृदयस्थ तर्पक कफ को क्रियाशील कर इस पूरी घटना के अंतिम परिणमन का कारण बनता है । आधुनिक दृष्टि से भी देखें तो न्यूरोट्रांसमिटर्स, जो कि साधकपित्त की भूमिका में हैं,  की कार्मुकता बहुत ही जटिल प्रतीत होती है जिसमें नवीन उत्पन्न सूचनाओं के संवहन का दायित्व न्यूरोरिसीप्टर्स के पोलाराइज़ेशन और डीपोलाराइज़ेशन पर निर्भर करता है जो वात की जटिल “संयोग-विभाग” भूमिका को स्पष्ट करता है ।

साधक पित्त की क्रियाशीलता को प्रभावित करने वाले घटकों की कार्मुकता को समझने के लिए दोषस्थित पंचमहाभूतों एवं तदनुरूप त्रिगुणों के विन्यास को समझना आवश्यक है । वात दोष में आकाश एवं वायु महाभूत, पित्त दोष में अग्नि एवं जल महाभूत तथा कफ दोष में पृथिवी एवं जल महाभूतों की प्रधानता से सभी लोग परिचित हैं । अधोलिखित तालिका में इन त्रिदोषों में महाभूतों के साथ-साथ उनमें स्थित त्रिगुणों के विन्यास को भी समझने का प्रयास किया गया है

महाभूतों में गुण विन्यास की परिकल्पना

महाभूत
सत्व गुण
रजो गुण
तमोगुण
सक्रिय
अक्रिय
सक्रिय
अक्रिय
सक्रिय
अक्रिय
आकाश
+++++
+
+
+++++
+
+++++
वायु
++++
++
+++++
+
++
++++
तेज
+++
+++
++++
++
+++
+++
अप
++
++++
+++
+++
++++
++
पृथिवी
+
+++++
++
++++
+++++
+
 

उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि –

1-    प्रत्येक महाभूत में तीनों गुण विभिन्न अनुपातों में उपस्थित हैं ।

2-    प्रत्येक महाभूत में प्रत्येक गुण न्यूनाधिक अंशों में सक्रिय एवं अक्रिय स्थिति में रहता है ।

3-    सतोगुण प्रधान महाभूत केवल एक ही हो सकता है और वह है आकाश ।

4-    रजोगुण प्रधान महाभूत केवल एक ही हो सकता है और वह है वायु ।

5-    तमोगुण प्रधान महाभूत केवल एक ही हो सकता है और वह है पृथिवी ।

6-    तेज महाभूत में रजोगुण की आंशिक बहुलता है ।

7-    अप महाभूत में तमोगुण की आंशिक बहुलता है ।

8-    आकाश महाभूत से पृथिवी महाभूत तक सतोगुण में क्रमशः एक-एक अंश की सक्रियता कम होती है किंतु उसी अनुपात में अक्रियता में वृद्धि होती है । 

9-    आकाश महाभूत से पृथिवी महाभूत तक तमोगुण में क्रमशः एक-एक अंश की सक्रियता में वृद्धि किंतु उसी अनुपात में अक्रियता में ह्रास होता है ।

10- तेज महाभूत में सतोगुण एवं तमोगुण की सक्रियता और अक्रियता तुल्य अंशों में होती है जिसके कारण ये दोनों गुण रजोगुण की आंशिक बहुल सक्रियता के संयोग से अपने-अपने स्वभावानुरूप प्रभावी होते हैं अर्थात् तेज महाभूत के दो लौकिक स्वरूपप्रकट होते हैं । रजोगुण सतोगुण से मिलकर सतोगुणी एवं तमोगुण से मिलकर तमोगुणी प्रभाव प्रदर्शित करता है ।

11- अप महाभूत में रजोगुण की सक्रियता और अक्रियता तुल्य अंशों में होती है जिसके कारण अप का तमोगुणी प्रभाव तेज की अपेक्षा अधिक किंतु पृथिवी की अपेक्षा न्यून प्रकट होता है ।