शनिवार, 27 नवंबर 2010

आरोग्य चिंतन

बहुत पहले .......कभी एक तत्वज्ञानी नें मनुष्य को उपदेश दिया था- "धर्मार्थ काम मोक्षाणामारोग्यम   मूलमुत्तमम " .सभी  पुरुषार्थों का मूल है आरोग्य , इसलिए पहले उसी को साधना . सब कुछ साधने की धुन में मूल की उपेक्षा मत कर देना .
किन्तु किसी नें ध्यान नहीं दिया, परिणामतः जो मूल था वह गौण हो गया.... उसे छोड़ दिया और भागने लगे उसके पीछे जो था तो गौण  पर मूल की तरह अपना लिया गया था . ......भागने लगे  ..... आविष्कारों के पीछे .....नयी -नयी भौतिक उपलब्धियों के पीछे .  मनुष्य का जीवन अधिकाधिक सुविधाजनक होता चला गया .......
हाँ ! सुविधाजनक तो हुआ .....पर सरलता समाप्त हो गयी, जीवन की मौलिक लय खो गयी . जीवन में प्रकृति का मधुर और दिव्य संगीत समाप्त हो गया. 
वस्तुतः जिसे हम जटिलता कहते हैं, वही तो जीवन की सरलता है .... प्रत्युत आज जो सरलता प्रतीत हो रही है वही जटिलता है ....उलझाव है - इसे समझना होगा .
इस पृथ्वी पर मनुष्य नें अनेकों आश्चर्यजनक कार्य किये हैं. कलि-युग में तो मनुष्य निर्मित इन आश्चर्यों का विस्तार अद्भुत है. वह अपनी रचनाओं पर इतना मोहित है....इतना आसक्त है कि किसी निकम्मे पति  की तरह उन्हीं पर पूर्ण तयः आश्रित हो गया है . 
उपकरणों एवं भौतिक साधनों का आविष्कारक ...उनका निर्माता मनुष्य अब अपनी ही रचनाओं पर आश्रित हो गया है . उनके अभाव में अब वह अपने जीवन को पंगु और अशक्त पाता है .
जब निर्माता अपने निर्माण पर आश्रित हो जाता है तो अपने विनाश को आमंत्रित करता है . ...क्योंकि उसका साधन ही तब उसका साध्य बन चुका होता है.
एक बार ब्रह्मा जी अपनी पुत्री पर मोहित हो गए. सृष्टिकर्ता को अपनी सृष्टि के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए ..... पर ब्रह्मा जी हो गए. ब्रह्मा का यह आचरण विनाश को आमंत्रित करने वाला था अतः उनके मानस-पुत्र नारद को उनका मोह भंग करने का प्रयास करना पड़ा. ....नारद तो उनका मोह भंग करने में सफल रहे. ...वे ब्रह्मा थे, उनका अपनी रचना के प्रति उत्पन्न हुआ मोह भंग हो गया ..पर मनुष्य का मोह भंग नहीं हो पा रहा है -अपनी रचना के प्रति.
प्रकृति को जीतने की दुराशा में आज   हमने "तत्व-ज्ञान" को नहीं बल्कि "तत्व" को ही  प्रमुख मान लिया है . तत्व की यह प्रमुखता ही कलियुग के जन्म का कारण है .....और यही इसके अंत का कारण भी बनेगी . 
काल को जीतने का प्रयास किया था रावण नें.... किन्तु असफल रहा. काल तो शाश्वत है, हम ही गतिमान हैं ,,,,,,,जन्म और मृत्यु से बंधे हुए हैं. इसीलिये हमारे हिस्से में समय का अल्प भाग है ......और महत्वाकांक्षाएं हैं अनंत .
एक छोटे से जीवन की सीमित अवधि में ही असीमित कार्यों की ऐषणा  करने लगे हैं हम. समय को अत्यंत महत्वपूर्ण बना दिया है  हमारी महत्वाकांक्षाओं नें ...इतना........ कि इसकी तुलना में जीवन स्वयं में महत्वहीन हो गया. जीवन से अधिक महत्व्पूर्ण तो उसके साधन हो गए हैं . 
मनुष्य निर्मित सभी साधनों -उपादानों का मूल्य है बाज़ार में ...उसकी प्रत्येक रचना मूल्यवान है.... किन्तु स्वयं उसके जीवन का कितना मूल्य है आज ?
जीवन गौण हो गया है और शेष सब महत्वपूर्ण. "शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनं" का उपदेश व्यर्थ लगाने लगा है लोगों को. इसीलिए शरीर और मन पर लोगों का अत्याचार बढ़ता जा रहा है दिनों-दिन. अत्याचार के दुष्परिणामों की चिकित्सा के लिए चिकित्सकों के समूह तैयार हो रहे हैं .....और चिकित्सा विशेषज्ञों नें तो मनुष्य शरीर को खंडित कर उसकी समग्रता को ही समाप्त कर दिया है. अब एक विशेषज्ञ शरीर के किसी एक ही भाग की चिकित्सा करता है .
चिकित्सा की समग्रता समाप्त हो गयी..क्योंकि जीवन की लयबद्धता तो पहले ही खंडित हो चुकी है .
लय समग्रता की ओर ले जाती है ....अंश नहीं करती ....विभाग नहीं करती .
शरीर के तंत्रों  की  समग्रता, चिकित्सा की समग्रता ...और ब्रह्माण्ड की समग्रता की लयबद्धता के दृष्टिकोण को समझना होगा. ...."पुरुषोयं लोक संमितः"  की अवधारणा को समझना होगा अन्यथा चिकित्सा भी संपूर्ण और निर्दुष्ट (without side effects ) न हो सकेगी.
आप कहते हैं कि व्यस्तता के कारण आप वह नहीं कर पाते जो आपको करना चाहिए. मैं पूछता हूँ कि यह व्यस्तता किसके लिए है ? इस व्यस्तता का लक्ष्य क्या है? इसका परिणाम क्या है ?
मनुष्येतर प्राणी भी व्यस्त रहते हैं अपने-अपने जीवन व्यापार में ...फिर प्रतिदिन ब्राह्म मुहूर्त में कौन उठाता है मुर्गों को बाँग देने के लिए ? चिड़ियों को कौन जगा देता है सुबह-सुबह चहचहाकर गीत गाने के लिए ? कलियों से कौन कहता है सुबह-सुबह खिलखिलाकर सूर्य का स्वागत करने के लिए ? और क्यों सूर्यास्त होते ही चल देते हैं सब विश्राम के लिए ? क्या वे सब हमसे बड़े वैज्ञानिक नहीं ? 
लयबद्ध हैं सब . केवल मनुष्य का जीवन ही लयहीन होता जा रहा है .
हमारे  सोने -जागने, भोजन करने....कुछ भी करने- न करने की लयबद्धता समाप्त हो गयी है . कुछ भी निश्चित नहीं रहा . अनिश्चित और बेताल हो गया है सब कुछ. हमारी दिनचर्या , रात्रिचर्या ...हमारा आचरण .... किसी में भी लय नहीं रही . आधुनिक जीवन शैली के विष नें जीवन में प्रकृति के संगीत को समाप्त कर दिया है . जीवन में जो एक लय थी ...कहीं खो गयी है वह. लय के अभाव में संगीत कैसा ? जीवन के श्री-हीन होने और आधि-व्याधि से ग्रस्त होने  का यही कारण है. 
प्रकृति पर मनुष्य की निर्भरता और श्रद्धा कम हुयी है . हम अपने ही निर्मित जाल में फस चुके हैं . जीवन उपकरणीय सुविधाओं पर आश्रित होकर पराधीन  हो गया है .उनके  अभाव में ....लगता है कि जैसे जीवन की हलचल थम सी गयी है. 
दिशाहीन दौड़ में गिरते हैं तो चोट खाने पर चिकित्सा लाभ भी चाहते हैं हम ....पर टूटी हुयी लय को जोड़ने का प्रयास नहीं करना चाहते. ......है न ! विचित्र बात ?
मूल्य देकर आरोग्य क्रय करने का दुराग्रह एक परम्परा बनती जा रही है. मूल्य चुकाने के लिए मुद्रा का अभाव नहीं है लोगों के पास . रोगी आरोग्य की आशा में पहुंचते हैं चिकित्सक के पास कि वह जलती हुयी आग को बुझा दे ........और शर्त यह भी रहती है कि वे आग जलाने की प्रक्रिया बंद नहीं कर करेंगे .......सिरोसिस ऑफ़ लीवर में भी शराब पीन बंद नहीं कर सकेंगे ...क्योंकि यह उनके व्यापार की एक अनिवार्य औपचारिकता है.
आग  तो वे जलाते ही रहेंगे क्योंकि उसके बिना उनके जीवन की हलचल थमने लग जायेगी. आप चिकित्सक हैं अतः आग बुझाने का उत्तरदायित्व भी आपका ही है ......कैसे भी बुझायें . ......सशर्त परिणाम पाने का दुराग्रह ! सभ्य एवं सुशिक्षित मानव की यह कैसी अवधारणा है आरोग्य के प्रति ?
पानी का गुण है आग को बुझाना किन्तु जलते हुए पेट्रोल पर पानी डालने का परिणाम विपरीत होता है ....आग और भी भड़कती है . पर लोगों की तो शर्त है कि वे प्रट्रोल में आग लगाना बंद नहीं करेंगे ......उनकी विवशता है  ऐसा करना .  ......यह कैसी विवशता...? गुटका और तम्बाकू खाने की विवशता.... सुबह दस बजे सोकर उठने की विवशता ......खाद्य को त्यागने और अखाद्य  को खाने की विवशता ....विवशताओं का अंत नहीं है.........भले ही कैंसर हो जाय ......एड्स हो जाय.
बड़ी-बड़ी स्वास्थ्य  योजनाओं पर सरकारी धन व्यय किया जा रहा है. लोग धन लिए आरोग्य क्रय करने के लिए भटक रहे हैं किन्तु आरोग्य लाभ नहीं हो पाता और व्याधियाँ  हैं कि सुरसा के वदन की तरह बढ़ती ही जा रही हैं .
हमारा जीवन अनावश्यक आवश्यकताओं से भर गया है . सुर-ताल-लय के लिए स्थान ही नहीं बचा.
एक अनावश्यक आवश्यकता दूसरी कई समस्याओं को एवं कुछ और अनावश्यक आवश्यकताओं को जन्म देती है. एक श्रंखला बन जाती है अनावश्यक आवश्यकताओं..........तत्जन्य समस्याओं एवं उनके निराकरण के लिए कुछ और अनावश्यक आवश्यकताओं की . विकसित मनुष्य समाज उलझ कर रह गया है इन श्रंखलाओं में .
आधुनिक जीवन शैली के नाम पर अनेकों ऐसे उद्योग स्थापित हो गए हैं जिनके उत्पादों की जीवन के लिए उपयोगिता तो नहीं ....हाँ ! पूरी धरती के लिए संकट की स्थिति अवश्य उत्पन्न हो गयी है . यही आसुरी वृत्ति है ....शांत एवं सुखी जीवन की कामना करने वाली दैवी-वृत्ति नहीं. हमारे आचरण की दिशा नें सभ्यता और शिक्षा के औचित्य पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है. 
प्रकृति के विपरीत आचरण करके जीवन की स्वाभाविक लय पाने की आशा कैसे की जा सकती है ? यदि आप आधुनिक जीवन शैली को त्यागने की कल्पना नहीं कर सकते तो फिर तैयार हो जाइए एक और महाविनाशकारी युद्ध के लिए . 
..............नहीं .... आपको प्रकृति की ओर वापस आना ही होगा . देखा नहीं , वह कबसे आपको आमंत्रित कर रही है और आप हैं कि निरंतर उसकी उपेक्षा किये जा रहे हैं . 
हे मनुष्य ! आप समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ एवं विवेकशील हैं . प्रकृति की अब और उपेक्षा मत कीजिये . वह वन्दनीया है ...जीवन-दायिनी ,,,और कल्याण कारी है . चलिए लौट चलते हैं  प्रकृति की ओर .......लौट चलते हैं जीवन की सरलता की ओर .....लौट चलते हैं आनंद की ओर .
चलेंगे न ! आप हमारे साथ ?