बुधवार, 5 अक्टूबर 2011

उपेक्षा का नहीं, प्रेम और सहानुभूति का पात्र है शिज़ोफ्रेनिया का रोगी.

पति या पत्नी में से कोई भी एक यदि शिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित है तो हिन्दू विधि की धारा १३ के अनुसार तलाक की पात्रता निर्मित होती है. 
हमारा विचार है कि पीड़ित का उपचार होना चाहिए...न कि उसे उपेक्षा और दंड का भागी घोषित कर देना चाहिए. किसी रोग से ग्रस्त होना अपराध नहीं है.....विवाह विच्छेद एक दांडिक निर्णय है जिसे सम्बंधित रोगी भोगने के लिए बाध्य होता है. मज़े की बात यह भी है कि ऐसा रोगी अपने बचाव के लिए भी मानसिक रूप से सक्षम नहीं होता. 

परिचय :- 
शिज़ोफ्रेनिया एक ऐसी मानसिक व्याधि है जिसके कई कारण हो सकते हैं और .....जिसमें कई प्रकार के लक्षण प्रकट हो सकते हैं. ऐसा व्यक्ति अपनी क्षमताओं का सही उपयोग करने में समर्थ नहीं हो पाता. उच्च शिक्षित व्यक्ति भी इस रोग के शिकार हो सकते हैं. इनका चिंतन एक दिशा विशेष में होता है जिससे किसी भी विषय पर सम्यक चिंतन न होकर दोषपूर्ण चिंतन होता है. सत्य को असत्य और असत्य को सत्य समझना इनकी विशेषता होती है...इसे अतत्वाभिनिवेश कहते हैं.  

कारण :- 
शिजोफ्रेनिया के ज्ञात / अनुमानित कारणों को कई श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है यथा -
१- जेनेटिक थ्योरी 
२- न्यूरो केमिकल थ्योरी. 
३- इंडोक्राइन थ्योरी. 
४- इनफेक्शियस या इम्यून थ्योरी. 
५- डेवलपमेंटल थ्योरी 
६- न्यूट्रीशनल थ्योरी.
७- स्ट्रेस थ्योरी .     

इसके कारणों में संक्रमण से सम्बंधित अवधारणा में कुछ रोचक तथ्य प्रकाश में आये हैं. यथा, "टोक्सोप्लाज्मा गोंडी" एक परजीवी प्लाज्मोडियम है जो कि बिल्लियों को संक्रमित करता है. जहाँ बिल्लियाँ अधिक पायी जाती हैं वहाँ मनुष्यों में शिज़ोफ्रेनिया भी अपेक्षाकृत अधिक पाया जाता है. ( Yolken  and  Torrey )
. T.gondii constructing daughter scafolds within the mother cell.
File:Toxplasma.png
Toxoplasma gondii 

Studies have also shown behavioral changes in humans, including slower reaction times and a sixfold increased risk of traffic accidents among infected males,[12] as well as links to schizophrenia including hallucinations and reckless behavior. Recent epidemiologic studies by Stanley Medical Research Institute and Johns Hopkins University Medical Center indicate that infectious agents may contribute to some cases of schizophrenia.[13][14] A study of 191 young women in 1999 reported higher intelligence and lower guilt proneness in Toxoplasma-positive subjects.[15]
The prevalence of human infection by Toxoplasma varies greatly between countries. Factors that influence infection rates include diet (prevalence is possibly higher where there is a preference for less-cooked meat) and proximity to cats.[16]
कुछ वायरस यथा, हर्पीज सिम्प्लेक्स और साइटोमीगेलो वायरस यदि किसी जींस विशेष पर आक्रमण करें तो उस व्यक्ति में शिज़ोफ्रेनिया की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. ( Catherine  Harrison , मेडिकल रिव्यू बोर्ड).

लक्षण :-
          शिजोफ्रेनिया के रोगी सामान्यतः बुद्धिमान से प्रतीत होते हैं किन्तु यदि ध्यान से उनकी बातों का विश्लेषण किया जाय तो उनके विचारों व तर्कों में असहजता स्पष्ट परिलक्षित होती है. उनके तर्क निराधार, अप्रासंगिक और विचित्र होते हैं. लक्षणों में उतार-चढ़ाव देखा जा सकता है. उतरते लक्षणों के समय या शांत स्थिति में ये बुद्धिमत्तापूर्ण या कलात्मक प्रतिभा का अच्छा प्रदर्शन करते हैं. इसलिए घर या पड़ोस के लोगों को उनकी सही मानसिक स्थिति का अनुमान तक नहीं हो पाता. लक्षणों में चढ़ाव के समय इनका व्यवहार विचित्र हो जाता है...दैनिक जीवन असामान्य हो जाता है ....जिसका स्पष्ट दुष्प्रभाव घर के अन्य सदस्यों एवं संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति पर देखा जा सकता है. यहाँ तक कि इस दुष्प्रभाव से स्थानीय समाज में झंझावात सा चलने लगता है. 
आयुर्वेद की दृष्टि से यह त्रिदोषज व्याधि है जिसमें सतोगुण की हीनता तथा तमोगुण एवं रजोगुण की वैकृतिक    वृद्धि हो जाती है. शिज़ोफ्रेनिक रोगी में तमोगुण एवं रजोगुण के वैकृतिक लक्षण स्पष्ट देखे जा सकते हैं. तमोगुण के कारण सत्य को असत्य एवं असत्य को सत्य समझना और रजोगुण के कारण विचारों में चांचल्यता, कथन में अस्थिरता व परस्पर विरोध देखा जा सकता है.  यदि रोगी उच्च शिक्षित है तो उसके तर्कों में वैज्ञानिक शब्दों का प्रयोग भले ही मिले पर  तात्विक दृष्टि से वे अवैज्ञानिक ही होते हैं. वे जानते हैं कि ब्रह्म निराकार है पर वे यह प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं कि उन्होंने ब्रह्म का साक्षात दर्शन किया है या शिव/ विष्णु उनसे रोज बात करते हैं और पास आकर बैठे रहते हैं. इनमें हीन और उच्च भावनाएं दोनों एक साथ मिल सकती हैं. अहंकार का प्रदर्शन इनमे पाए जाने वाले लक्षणों में सामान्य है. ये रोगी प्रायः हिंसक नहीं होते तथापि इनमें आत्मह्त्या की प्रवृत्ति पायी जाती है. पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों में यह प्रवृत्ति अधिक मिलती है. 
यद्यपि, सरलता की दृष्टि से इनमें पाए जाने वाले लक्षणों का वर्गीकरण किया गया है पर लक्षणों में व्यक्ति-व्यक्ति के अनुसार भिन्नताएं मिलती हैं साथ ही सभी लक्षणों का एक ही रोगी में पाया जाना भी आवश्यक नहीं. 


१- पोजिटिव लक्षण -
असामान्य विचार या अनुभूतियाँ, ध्वनि या दृश्य की भ्रांतियां, विचार वैगुण्यता, असामान्य गति. कैटाटोनिया, पैरानोइड शिज़ोफ्रेनिया.


२- निगेटिव लक्षण :- दैनिक जीवन से प्रसन्नता का लोप, योजना क्रियान्वयन में शिथिलता, बोलने एवं भावाभिव्यक्ति में शिथिलता. 


३- अभिज्ञानहीनता - सूचनाओं को समझने , उन्हें अभिव्यक्त करने और उनके आधार पर निर्णय लेने में अक्षमता. ध्यान में कमी, तत्काल  प्राप्त  सूचनाओं की विस्मृति के कारण उनके युक्तियुक्त प्रयोजन में अक्षमता.


४- मिश्रित लक्षण :- इस लक्षण समूह में मिले-जुले लक्षण प्रकट होते हैं.     


रोग पहचानने के प्रारम्भिक लक्षण :-
अंतर्मुखी हो जाना. अवसाद, संदेह, स्वाभिमान में कमी, असुरक्षा का भाव, अतिनिद्रा या अनिद्रा, व्यक्तिगत साफ़-सफाई में कमी, अप्रासंगिक कथन, भावहीन चेहरा एवं घूरना, एकाग्रता में कमी, बिना किसी पर्याप्त कारण के रोना या हंसना, परस्पर विरोधी कथन, चित्त एवं विचारों में अस्थिरता, स्वयं की आलोचना के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया, विचित्र शब्दों का प्रयोग....आदि.


चिकित्सा :- 
शिजोफ्रेनिया की चिकित्सा संभव है. किन्तु इसमें सबसे बड़ी परेशानी यह आती है कि रोगी स्वयं को पूरी  तरह स्वस्थ्य मानता है इसलिए वह चिकित्सा के लिए तैयार ही नहीं होता. यदि किसी तरह रोगी को चिकित्सा के लिए राजी कर लिया जाय तो सही चिकित्सा से लक्षणों में शीघ्र ही सुधार दिखाई देने लगता है. 
यह देखा गया है कि शिजोफ्रेनिया की चिकित्सा में कारणानुरूप एलोपैथिक औषधि के साथ-साथ आयुर्वेद की उपयुक्त औषधियाँ लेने से अपेक्षाकृत शीघ्र और स्थायी लाभ मिलता है. चिकित्सा में किंचित जटिलता के कारण औषधीय एवं मनोचिकित्सा के साथ-साथ पारिवारिक व सामाजिक सहयोग की अपेक्षा विशेषरूप से विचारणीय हैं. 
इन रोगियों में आत्मरति भी पायी जाती है. ये अधिक से अधिक लोगों का ध्यान अपनी और आकृष्ट करने का प्रयास करते हैं. ये चाहते हैं कि लोग उनसे प्यार करें ..उनका ध्यान रखें ...उनकी प्रशंसा करें ....पर वे स्वयं दूसरों से घृणा करते हैं इसलिए इनकी मनः स्थिति को जानते हुए परिवार के सदस्यों और अन्य सभी परिचितों से अपेक्षा की जाती है कि वे रोगी के प्रति सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करें न कि उसके व्यवहार के लिए उससे झगड़ा करें या उसे किसी भी तरह से अपमानित करने का प्रयास करें. यह चिकित्सा का सबसे बड़ा पक्ष है ......इसे सामाजिक उत्तरदायित्व की तरह स्वीकार किया जाना चाहिए. 
समाज से भी बड़ा उत्तरदायित्व रोगी के स्वजनों का होता है कि वे रोग की स्वयं पहचान करें और निदान के सुनिश्चितीकरण के लिए उसे चिकित्सक के पास ले जाएँ. समस्या का सही समय पर निदान ही उसकी सही चिकित्सा का प्रथम और सबसे अनिवार्य चरण है.  


            ॐ !!! सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः  .....
                             तमसो मा ज्योतिर्गमय .....   







14 टिप्‍पणियां:

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

बहुत उपयोगी लेख है लेकिन कोई ऐसी पद्धति या ईलाज हो तो बताईयेगा जिसमें ईलाज परिवारजनों का किया जाये और उपचार पीड़ित\पीड़िता का हो सके।
नॉन-सीरियस ब्लॉगर हूँ, लेकिन ये टिप्पणी नॉन-सीरियस नहीं है।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

चिकित्सा तो पीड़ित की ही करनी पड़ेगी बंधु ! किन्तु कुछ मामलों में जहाँ इसका कारण आनुवंशिक हो या गर्भिणी का संक्रमण हो वहाँ बचाव के लिए गर्भिणी की भी चिकित्सा का प्रावधान है ताकि नवजात आगे चलकर इस रोग से ग्रस्त न हो. अब यदि वह समय जा चुका है और आपके सामने रोगी है तो सबसे पहले तो उसके घर वालों की ही कौन्सेलिंग की जानी चाहिए की वे रोग का अनुमान लगा सकने में सक्षम हो सकें. कई बार रोगी तो रोगी उसके घर वाले भी रोग के अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते. ऐसी स्थिति में समाज के प्रबुद्ध्जीवियों को आगे बढ़कर किसी भी तरह रोगी के घर वालों को सही निदान के लिए तैयार करने का स्वैच्छिक उत्तरदायित्व लेना चाहिए. अंततः हम सभी सामाजिक प्राणी हैं और हमारे कुछ सामाजिक उत्तरदायित्व भी हैं. जिस तरह शादी-व्याह, जन्म-मरण आदि में हमारी सहभागिता होती है उसी तरह इसमें भी होनी चाहिए. मैंने इसीलिये इसे न केवल चिकित्सकीय अपितु सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समस्या भी कहा है. रोगी के घर वालों की कौन्सेलिंग करना एक जोखिम भरा काम है. अभी तक मुझे ऐसे दो प्रकरणों में सफलता मिली है और दो में असफलता. जिन दो प्रकरणों में मैं रोगी के घर वालों को समझा सका हूँ उनमें से एक तो खुद गोल्ड मेडलिस्ट डॉक्टर है और एक इंजीनियर. अभी दोनों स्वस्थ्य हैं.
शेष दो असफल प्रकरणों में दुर्भाग्य से दोनों रोगी मेडिकल प्रोफेशन से ही हैं.लेकिन अच्छी बात यह है कि वे दोनों नौकरी छोड़ चुके हैं.

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

गौर फ़रमाया, धन्यवाद। और मुझे ऐसे ही उत्तर की अपेक्षा भी थी।
विशाल हृदय होकर हम इस समस्या को सामाजिक कह मान सकते हैं, लेकिन जिस परिवार को यह सब भुगतना पड़ता है, उनके लिये यह व्यक्तिगत समस्या ज्यादा है।
शादी-ब्याह की तरह इसका इलाज भी एक जुआ ही है, जीतने की बजाय हारने के ज्यादा चांसेस रह्ते हैं।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

पर अभी तक मुझे मिली सफलता का प्रतिशत ५० % रहा है. यह आशान्वित करता है. और फिर कुछ करने के लिए रिस्क फैक्टर के कारण ही उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती. यह सच है कि यह सामाजिक की अपेक्षा व्यक्तिगत और पारिवारिक समस्या अधिक है पर आसपास के लोग भी प्रभावित होते ही हैं ......उसका भी तो उपचार खोजना होगा न ! हम चिकित्सक हैं .....सकारात्मक दिशा में सोचना हमारा धर्म है.
जैसा कि मैंने बताया, रोगी के स्वजन भी रोग स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते...ऐसे में चिकित्सा कर पाना बड़ा मुश्किल होता है . इसलिए पहली आवश्यकता तो यही है कि समाज के जानकार लोग रोगी के घर वालों को मोटीवेट करें.
आपने रूचि ली इसके लिए धन्यवाद.

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

अरे डाक्टर साहब, हिन्दी में इस विषय पर जानकारी आपने उपलब्ध करवाई, उसके लिये धन्यवाद तो हम दे रहे हैं आपको।
मेरी राय में जैसे हम लोगों में जन्म कुंडली वगैरह मिलाने के बाद ही विवाह तय किये जाते रहे हैं(थे), क्या यह समय नहीं आ गया कि इसे मैडिकल संदर्भ में भी स्वीकार किया जाये? सुना था कि HIV टैस्ट के लिये तो सरकार ही सोच रही है कि इसे अनिवार्य कर दिया जाये।

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

संजय जी ! हम सहमत हैं .
सिकलिंग के मैनेजमेंट में हमने विवाह पूर्व हीमोग्लोबिन का एलेक्ट्रोफोरेटिक परीक्षण कराये जाने का प्रचार शुरू कर दिया है. इसको नया "मेडिकल होरोस्कोप" नाम दिया गया है.
जन्म कुण्डली में यदि चन्द्र और मंगल दोषयुक्त है तो वैवाहिक जीवन में परेशानियों का होना देखा गया है. इसी तरह यदि लग्न भाव में राहू या केतु हो तो विवाह विच्छेद होना देखा गया है. आपके विचार को हमारा पूरा समर्थन है. विवाह पूर्व दोनों ही प्रकार की कुंडलियों का सावधानीपूर्वक परीक्षण किया जाना अनिवार्य होना चाहिए. बल्कि हस्तरेखा परीक्षण को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए. बिना अच्छी तरह जाने इन पारंपरिक तथ्यों का विरोध करने की आधुनिक मानसिकता हमारे लिए ही हानिकारक है.
तो क्या मैं यह मान लूँ की कम से कम आप तो अपने बच्चों की शादी से पूर्व ये परीक्षण अवश्य करवाएंगे ?

JC ने कहा…

डॉक्टर कौशलेन्द्र जी, सिजोफ्रेनिया पर ज्ञानवर्धन के लिए धन्यवाद!
मेरा भी रिश्ते में भतीजे, एक ऐसे लड़के, को उसके बचपन से देखने का अवसर मिला है. उससे एक चार वर्षीय बड़ी बहन भी है जो एक दम नॉर्मल और बिंदास है...
जन्मोपरांत ही उस लड़के को कुछ दिन इन्क्युबेटर में रखना पड़ा था... लगभग १३ वर्ष की आयु में स्कूल वालों ने उसको स्कूल से हटा लेने को कहा क्यूंकि उनके अनुसार वो अन्य लड़कों से लड़ाई करता था और पढने में भी कमज़ोर था...
उस को दूसरे स्कूल में भर्ती करा दिया गया... इस कारण वो अपने पिता से नाराज़ हो गया - उनको ही अपनी बिमारी का कारण मान झगड़ने लगा...
सरकारी अस्पताल में एलोपैथी द्वारा दवाइयां आरम्भ हो गयीं... और उसको बिजली के झटके भी दिए गए... उसके पश्चात वो और भी उत्तेजित होने लगा...
संक्षिप्त में, वो दवाइयों के कारण नशे में सा रहता है और आज ४४ वर्ष का हो गया है... उसके कारण कहलो उसके पिताजी की मृत्यु १९ वर्ष पूर्व हो गयी, और तबसे अब वो उसकी लगभग ८० वर्षीया वृद्धा माँ का सर दर्द कहलो बन गया है...
वो बहुत शांत स्वभाव की हैं, और मैं उनके धैर्य की दाद देता हूँ कि वो कैसे उसको झेल रहीं हैं अकेले!
"जो जो जब जब होना है / सो सो तब तब होता है", प्रभु की इच्छा को बलवती माना गया है...शायद यही सत्य है मानव जीवन का...

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

ॐ नमो नारायण जे.सी जी !
भतीजे का सही समय पर निदान नहीं हो सका और न चिकित्सा ......हम प्रायः मानसिक व्याधियों के मामले में न जाने क्यों उदासीन रहते हैं ? जबकि इन्हें भी उतनी ही गंभीरता से लिया जाना चाहिए. बहरहाल, सामाजिक और व्यक्तिगत जाकरूकता की आवश्यकता है.

JC ने कहा…

एक सरकारी कर्मचारी इलाज के लिए सरकारी अस्पताल ही जाता है...
घटना अस्सी के दशक की है, जब मैं स्वयं गौहाटी में था और पत्नी की बीमारी से परेशान था...
तब दिल्ली में इतनी भीड़ भी नहीं थी, और राम मनोहर लोहिया अस्पताल तो अच्छा माना जाता था / है...
मैंने तो उसे सन '८४ में दिल्ली आ देखा... और पत्नी की बीमारी के कारण हमें परेशान देख उसे हमसे सहानुभूति थी...
और क्यूंकि वो हमारे घर से अधिक दूरी पर नहीं रहते, वो कभी कभी आ जाया करता था, विशेषकर उनसे मिलने...
अब मैं बहुत कम जाता हूँ उनके घर, टेलीफोन पर ही कभी कभी उसकी माँ से बात हो जाती है, क्यूंकि उनको भी अब तकलीफ होती है चलने में...

JC ने कहा…

पुनश्च - उसको बंगलुरु निमहांस में भी ले जाया गया... उन्होंने कुछ दिन देख कहा उसका केवल बिहावियर का प्रॉब्लम है, जो घर में ही देखा जा सकता है...बंगलुरु में ही किसी निजी केयरटेकर की निगरानी में और कई ऐसे एनी बच्चों के साथ भी रखा गया कई माह... फिर वहाँ भी नापसंद दक्षिण भारती भोजन, बच्चों की संख्या बढ़ने और नौकरों के सही व्यवहार न होने से उसके निरंतर शिकायत करने पर उसको उसकी माँ दिल्ली वापिस ले आई...

बस्तर की अभिव्यक्ति जैसे कोई झरना ने कहा…

बिहेवियरल डिसऑर्डर के चिकित्सकीय प्रबंधन के लिए पारिवारिक सदस्यों का प्रशिक्षण आवश्यक है ...तभी वे रोगी की सही देखभाल कर पाने में सक्षम हो पाते हैं. अब तो समय बहुत निकल चुका है तथापि पंचगव्य के नित्य सेवन के साथ नयी शुरुआत की जा सकती है ......

JC ने कहा…

आपके सुझाव के लिए धन्यवाद!
संयुक्त परिवार टूट गए हैं, घरों में तो शहरों अथवा दिल्ली जैसे महानगरों में, अब अधिकतर वृद्ध ही अकेले रह गए हैं...
और इस उम्र तक पहुँचते पहुँचते हर व्यक्ति की इन्द्रियाँ शिथिल हो गयी होती हैं, अथवा व्याधि ग्रस्त रहती हैं...
शरीर के ढीले होने से मतिश्क भी ढीला हो जाता है, और जैसी मानवीय व्यवस्थाएं हैं (जिसके लिए हम सभी उत्तरदायी हैं) भीड़ भाड़ के कारण और भी दयनीय स्थिति में हैं...
अब ऐसे में पुराने संयुक्त परिवार के सदस्यों से कुछ अपेक्षा करना भी व्यर्थ है...
इनकी लड़की को पता था कि कोई 'पागल' की बहन के साथ विवाह के लिए तैयार नहीं होगा, उसने हम सबकी सहमती से एक जर्मन से विवाह कर लिया और अब वो दो बच्चों की माँ विदेश में ही रहती है...और अन्य संयुक्त परिवार के सदस्य अपने अपने चूल्हे-चक्की में व्यस्त हैं...

'समय' किसके पास है आज?! काल-चक्र में फंसी हुई आत्माओं को 'मोक्ष' शब्द बोलने तक के लिए समय नहीं है :)
अब तो हमारे जैसे केवल, जिनके पास समय की कृपा से खाली समय मिला है, वो भी न मालूम कब तक, ब्लॉग में ही लिख सकते हैं अपने दुःख-सुख :) कहते हैं न गठिया के मरीज़ एक दूसरे से बात कर अपना दुःख हल्का कर लेते हैं :)

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

कौशलेन्द्र जी,
दो दिन से आऊट ऑफ़ स्टेशन था, आज कमेंट देखा है।
मेरे बच्चों के विवाह में मेरी राय चली तो मैं जरूरी टैस्ट अवश्य करवाऊंगा।

Lizzie Barbie ने कहा…

Thank you for following My Life Through Pictures. Following your blog now!