इस लेखमाला के क्रम में आज पुंसवन कर्म एवं गर्भ-पोषण के बारे में कुछ चर्चा ...
आचरण का निरंतर परिमार्जन ही संस्कार है अन्यथा अपरिमार्जित आचरण रूढ़ि बनकर विकार ही उत्पन्न करता है. प्राचीन भारतीय ग्रंथों में अनेकों स्थानों पर प्रक्षेपांश दिए हुए हैं ...इन प्रक्षेपांशों के कारण उनकी परीक्षा आवश्यक हो गयी है. परम्परावादी होना अच्छा है पर रूढ़िवादी होना नहीं. पिछले लेख में मैंने पुत्र प्राप्ति हेतु पूर्णिमा की रात्रि में समागम करने का उल्लेख किया था जबकि शास्त्रों में पूर्णिमा की रात्रि इस हेतु वर्ज्य है. इस वर्जना का औचित्य विचारणीय है.
पृथिवी के जड़-चेतन पर चन्द्रमा का सुस्पष्ट प्रभाव सर्वविदित है. इस प्रभाव की प्रकृति जड़-चेतन की अपनी प्रकृति के अनुरूप होती है . पूर्णिमा के दिन स्थिर तालाब में ज्वार नहीं आते जबकि समुद्र के जल में शुक्ल पक्ष के अन्य दिनों की अपेक्षा पूर्णिमा के दिन ही तीव्र ज्वार आते हैं . कवियों के लिए पूर्ण चन्द्र काव्य सृजन हेतु सुन्दर मनोभावोत्पादक होता है जबकि उन्मादी के लिए उन्माद कारक . संगीतकार उस रात्रि नए रागों की रचना की प्रेरणा पाता है वहीं पूर्ण चन्द्र का कामोद्दीपन प्रभाव भी सर्वविदित है . हमारे कुछ परिचितों ने पुत्र प्राप्ति हेतु समागम हेतु पूर्णमासी की रात्रि का चयन किया और इस चयन से उनकी अभिलाषा पूर्ण भी हुयी. वस्तुतः पूर्णिमा की रात्रि का चयन हर किसी के लिए संभव भी नहीं है, क्योंकि ऐसा चयन तो Ovulation के संयोग पर निर्भर करता है . मेरा अभिमत है कि जिन लोगों की हस्तरेखा में मस्तिष्क रेखा ह्रदय रेखा के लगभग समानांतर न हो ...या सर्पाकार हो ...या मस्तिष्क रेखा का अंत निरंतर झुकाव के साथ चन्द्र पर्वत के समीप हो ......या मस्तिष्क रेखा द्वीपयुक्त हो एवं उंगलियाँ कोणीय हों ......या जन्म कुण्डली में चन्द्रमा अशुभ कारी हो तो ऐसे लोगों के लिए पूर्णमासी की रात्रि समागम हेतु वर्जित है शेष लोगों के लिए नहीं .
भारत की प्राचीन परम्पराओं में पुंसवन कर्म एक अद्भुत संस्कार प्रक्रिया रही है. प्राचीन कालमें पुत्र प्राप्ति हेतु गर्भ स्थापना के द्वितीय मास में पुष्य नक्षत्र या किसी भी शुभ दिन वटशुंग (शुंग से निकला हुआ क्षीर ), जीवक, ऋषभक, जीवंती, लक्ष्मणा, श्वेत वृहती, अपामार्ग, सहचर, शालि चावल, कुड्यकीट, मत्स्यक एवं स्वर्ण जल आदि का गर्भिणी स्त्री द्वारा सेवन किया जाता था. आजकल भी कहीं-कहीं इसका रूढ़ि स्वरूप देखने में आता है . लोग द्वितीय मास में कभी भी गर्भिणी को खीर भर खिलाकर पुंसवन कर्म संपन्न हुआ मान कर रस्म निभा लेते हैं जबकि यह तो संस्कार का प्रारम्भ भर है.
आधुनिक विज्ञान के अनुसार गर्भ के लिंग का निर्धारण तो अंड एवं शुक्र के निषेचन के समय ही हो जाता है. तदुपरांत भ्रूण-जीवन के सातवें सप्ताह में लिंग का (पूर्व निर्धारणानुसार ) विभाजन होता है. छठवें सप्ताह के भ्रूण शरीर में indefferent gonads होते हैं जिसमें wolfian duct एवं mullerian duct होती हैं. Wolfian duct के विकास से पुत्र और Mullerian duct के विकास से कन्या जननांगों का विकास होता है ...अर्थात छठवें सप्ताह के भ्रूण के indefferent gonads में स्त्री एवं पुरुष दोनों के ही जननांग विकसित करने की क्षमता होती है. सातवें सप्ताह में पूर्व निर्धारणानुसार इनमें से किसी भी एक duct का विकास होने लगता है. यदि wolfian duct का विकास हुआ तो पुरुष जननांग विकसित होंगे एवं ऐसी स्थित में Mullerian duct के अवशेष appendix of testes एवं prostatic utricle के रूप में विकसित होकर अर्धनारीश्वर का अस्तित्व बनाए रखते हैं. इसी तरह यदि Mullerian duct का विकास हुआ तो तो कन्या जननांग विकसित होंगे एवं तब wolfian duct का अस्तित्व epoophoron एवं paroophoron अवशेषान्गों के रूप में बना रहेगा. दोनों ही स्थितियों में अर्धनारीश्वर की कल्पना का सुन्दर वैज्ञानिक स्वरूप स्पष्ट होता है.
ध्यान दिया जाय ...indefferent duct भ्रूण-जीवन के छठवें सप्ताह अर्थात ४२वें दिन तक रहती है फिर सातवें सप्ताह में अर्थात ४२वें दिन के पश्चात ही उसका लैंगिक विभाजन प्रारम्भ होता है. प्राचीनों के पुंसवन कर्म का समय है - गर्भ धारण का द्वितीय मास अर्थात ३१वें दिन के पश्चात. यह काल आधुनिकों के लिंग विभाजन काल के लगभग सामान है. अब विचारणीय यह है कि क्या पुंसवन में प्रयुक्त औषधियां Wolfian duct को विकसित होने के लिए उत्प्रेरित करने में सक्षम है ? और क्या औषधियों के प्रभाव से genetic कोड को किसी भी मनचाहे रूप में परिवर्तित किया जा सकना संभव है ? यदि ऐसा है तो genetic इंजीनियरिंग के क्षेत्र में औषधीय प्रयोगों पर शोध की सम्भावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता.
आर्ष ग्रंथों में, पुंसवन में प्रयुक्त औषधियों का स्वरस या तप्तस्वर्ण-जल गर्भिणी को पुत्र प्राप्ति हेतु अपने दक्षिण नासापुट एवं कन्या प्राप्ति हेतु अपने वाम नासापुट से ग्रहण करने का स्पष्ट निर्देश दिया गया है. इससे एक बात तो यह स्पष्ट हो गयी कि पुंसवन कर्म केवल पुत्र प्राप्त हेतु ही नहीं अपितु कन्या प्राप्ति हेतु भी किया जाता था. मेरा अभिमत है कि यदि लिंग निर्धारण की बात को अभी छोड़ भी दें तो पुंसवन कर्म का निश्चित लाभ प्रजास्थापन (गर्भ को गर्भाशय में स्थापित कर पुष्ट करना) तो है ही. गर्भस्राव या गर्भपात की सर्वाधिक संभावनाएं द्वितीय मास से पांचवे मास तक ही रहती हैं इस काल में गर्भ को सुस्थिर बनाए रखने एवं भ्रूणान्गों के पर्याप्त एवं निर्दुष्ट (दोष रहित) विकास हेतु उचित पोषण की आवश्यकता होती है. किन्तु पुंसवन का लक्ष्य इतना ही नहीं है, उसका लक्ष्य तो इससे भी आगे मन और बुद्धि का समग्र विकास भी है.
आयुर्वेदिक संहिता ग्रंथों में वर्णित पुंसवनकर्म में प्रयुक्त होने वाली औषधियों को पहचानने एवं उन्हें प्राप्त कर प्रयोग करने में जन सामान्य को कठिनाई होना स्वाभाविक है. आज की जीवन शैली में तो यह सब करना और भी असंभव सा हो गया है. परिणामतः पुंसवन कर्म आम लोगों के जीवन से लगभग समाप्त सा ही हो गया है. इसे पुनर्जीवित करने एवं सुकर बनाने की दृष्टि से पुंसवन में प्रयुक्त होने वाली औषधियों एवं अन्य गर्भकर औषधियों के उपलब्ध उत्पादों का प्रयोग कर व्यवहारोपयोगी व्यवस्था की जा सकती है. पुंसवन एवं गर्भ के मासानुमास (महीने-दर-महीने) पोषण हेतु जिन औषधियों का गर्भिणी द्वारा सेवन किया जाना प्रशस्त है उनकी जानकारी के लिए प्रतीक्षा कीजिये अगले लेख के लिए.
ध्यान दिया जाय ...indefferent duct भ्रूण-जीवन के छठवें सप्ताह अर्थात ४२वें दिन तक रहती है फिर सातवें सप्ताह में अर्थात ४२वें दिन के पश्चात ही उसका लैंगिक विभाजन प्रारम्भ होता है. प्राचीनों के पुंसवन कर्म का समय है - गर्भ धारण का द्वितीय मास अर्थात ३१वें दिन के पश्चात. यह काल आधुनिकों के लिंग विभाजन काल के लगभग सामान है. अब विचारणीय यह है कि क्या पुंसवन में प्रयुक्त औषधियां Wolfian duct को विकसित होने के लिए उत्प्रेरित करने में सक्षम है ? और क्या औषधियों के प्रभाव से genetic कोड को किसी भी मनचाहे रूप में परिवर्तित किया जा सकना संभव है ? यदि ऐसा है तो genetic इंजीनियरिंग के क्षेत्र में औषधीय प्रयोगों पर शोध की सम्भावनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता.
आर्ष ग्रंथों में, पुंसवन में प्रयुक्त औषधियों का स्वरस या तप्तस्वर्ण-जल गर्भिणी को पुत्र प्राप्ति हेतु अपने दक्षिण नासापुट एवं कन्या प्राप्ति हेतु अपने वाम नासापुट से ग्रहण करने का स्पष्ट निर्देश दिया गया है. इससे एक बात तो यह स्पष्ट हो गयी कि पुंसवन कर्म केवल पुत्र प्राप्त हेतु ही नहीं अपितु कन्या प्राप्ति हेतु भी किया जाता था. मेरा अभिमत है कि यदि लिंग निर्धारण की बात को अभी छोड़ भी दें तो पुंसवन कर्म का निश्चित लाभ प्रजास्थापन (गर्भ को गर्भाशय में स्थापित कर पुष्ट करना) तो है ही. गर्भस्राव या गर्भपात की सर्वाधिक संभावनाएं द्वितीय मास से पांचवे मास तक ही रहती हैं इस काल में गर्भ को सुस्थिर बनाए रखने एवं भ्रूणान्गों के पर्याप्त एवं निर्दुष्ट (दोष रहित) विकास हेतु उचित पोषण की आवश्यकता होती है. किन्तु पुंसवन का लक्ष्य इतना ही नहीं है, उसका लक्ष्य तो इससे भी आगे मन और बुद्धि का समग्र विकास भी है.
आयुर्वेदिक संहिता ग्रंथों में वर्णित पुंसवनकर्म में प्रयुक्त होने वाली औषधियों को पहचानने एवं उन्हें प्राप्त कर प्रयोग करने में जन सामान्य को कठिनाई होना स्वाभाविक है. आज की जीवन शैली में तो यह सब करना और भी असंभव सा हो गया है. परिणामतः पुंसवन कर्म आम लोगों के जीवन से लगभग समाप्त सा ही हो गया है. इसे पुनर्जीवित करने एवं सुकर बनाने की दृष्टि से पुंसवन में प्रयुक्त होने वाली औषधियों एवं अन्य गर्भकर औषधियों के उपलब्ध उत्पादों का प्रयोग कर व्यवहारोपयोगी व्यवस्था की जा सकती है. पुंसवन एवं गर्भ के मासानुमास (महीने-दर-महीने) पोषण हेतु जिन औषधियों का गर्भिणी द्वारा सेवन किया जाना प्रशस्त है उनकी जानकारी के लिए प्रतीक्षा कीजिये अगले लेख के लिए.
4 टिप्पणियां:
एक गम्भीर अन्वेष्ण!!
सभी कडियां देखुंगा तो सही होगा।
शानदार शोधपूर्ण आलेख।
उम्दा लेख, किसी के काम भी आयेगा।
भाई जाट देवता जी ! जय राम जी की ! ब्लॉग पर प्रथम आगमन पर आपका हार्दिक स्वागत है. मैं कुछ नवीन नहीं लिख रहा हूँ, भारतीय सभ्यता में रची-बसी और फिर भूली-बिसरी परम्पराओं को ही प्रस्तुत कर रहा हूँ ...हाँ दृष्टि थोड़ी आधुनिक अवश्य है.आशा है नयी पीढी तक यह सन्देश पहुंचाएंगे.
वाह कौशलेन्द्र जी,
लिखते रहो,
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