शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

प्रकृति सूक्ष्म स्तर पर इतनी जटिल क्यों है ?


ब्रह्माण्ड के रहस्योद्घाटन की यात्रा में हमारी यह जिज्ञासा हमें आश्चर्यचकित करती है कि प्रकृति सूक्ष्म स्तर पर इतनी जटिल क्यों है ? 
सामान्यतः , अपने दैनिक जीवन में हम छोटी और कम महत्त्वपूर्ण चीजों को छोड़कर अपेक्षाकृत बड़ी और अधिक महत्त्वपूर्ण चीजों की ओर भागते रहने के अभ्यस्त हैं. एक छोटे से कंकड़ की अपेक्षा विशाल पर्वत हमें अधिक आकर्षित करता है. 
जो जितना सहज दृष्टव्य और प्राप्य है वह उतना ही सरल है.
"अव्यक्त" ( अनमेनिफेस्ट   ) अपनी संपूर्णता के साथ कभी भी व्यक्त नहीं हो पाता. वह आंशिक रूप में ही व्यक्त हो पाता है. 
जो व्यक्त है वह सीमित है, व्यक्त स्वरूप में होने के कारण हमारी सामर्थ्य भी सीमित है किन्तु अव्यक्त......वह तो  अनन्त और असीमित है. इसीलिये जो आंशिक है .....जो हमारी सामर्थ्य सीमा में है वह किंचित बोधगम्य हो जाता है. 
सृष्टि उत्पत्ति के क्रम में सब कुछ अनायास ही नहीं प्रकट हो जाता.....विभिन्न चरणों में स्थूलीकरण संभव हो पाता है.  
जो जितना अधिक व्यक्त है वह उतना ही अधिक बोधगम्य है.......जो जितना अधिक अव्यक्त है वह उतना ही अधिक दुर्बोध और जटिल है. हम जैसे-जैसे सूक्ष्मता  (अव्यक्त ) की ओर बढ़ते जायेंगे ....वह उतना ही जटिल होता जाएगा. 
स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा में हमारी इन्द्रियों की सीमाएं स्पष्ट होने लगती हैं. एक-एक  कर सारी इन्द्रियाँ साथ छोड़ने लगती हैं.....तब हमें वैज्ञानिक विकल्पों का सहारा लेना पड़ता है...किन्तु उनकी भी अपनी सीमायें हैं ......अंत में हम असहाय हो जाते हैं ......क्योंकि अब तक हमारी सारी सीमाएं समाप्त हो चुकी होती हैं . 


परम सत्ता को हम अनादि.... अनंत... अखंड...... निराकार... स्वीकारते आए हैं. भौतिक संसाधनों से इसका विश्लेषण ...इसकी व्याख्या सरल है क्या ? 
निराकार की कल्पना कैसे की जाय ? हम निराकार को न तो देख सकते हैं .....न उसकी कल्पना कर सकते हैं. यही तो जटिलता है.


निराकार से साकार के व्यक्तिकरण में यह जटिलता क्रमशः कम होती जाती है. जो कम व्यक्त है वह अधिक जटिल है .....जो जितना अधिक व्यक्त है वह उतना ही कम जटिल होता जाता है....क्योंकि वह हमारी इन्द्रियों के लिए अधिक बोधगम्य हो जाता है. 


सृष्टि उत्पत्ति का क्रम है - 
अव्यक्त से महत्तत्व ( condensation) , 
महत्तत्व से अहंकार ( isness ) , 
अहंकार से पञ्चतन्मात्रा ( precursors of qualities  ) , 
पंचतन्मात्रा से पंचमहाभूत ( qualities  ), 
और पञ्चमहाभूतों से सबएटोमिक पार्टिकल्स .....
और इसके बाद का मैनीफेस्टेशन सब जानते हैं. 
सरलता क्रमशः बढ़ती जाती है .....किन्तु तंत्र क्रमशः जटिल होता जाता है. हीलियम की अपेक्षा स्वर्ण का तंत्र अधिक जटिल है....तथापि दुर्बोध नहीं.  
प्रोटोज़ोआ की अपेक्षा मनुष्य का तंत्र अपेक्षाकृत अधिक जटिल है.   
स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म की व्यापकता भी बढ़ती जाती है. जो व्यापक है उसे अव्यापक की बोधगम्य सीमाओं में कैसे लाया जा सकता है भला ?       


( इस आलेख के लिए शीर्षक आशीष श्रीवास्तव जी के आलेख से लिया गया है......साभार ...) 

बुधवार, 5 अक्टूबर 2011

उपेक्षा का नहीं, प्रेम और सहानुभूति का पात्र है शिज़ोफ्रेनिया का रोगी.

पति या पत्नी में से कोई भी एक यदि शिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित है तो हिन्दू विधि की धारा १३ के अनुसार तलाक की पात्रता निर्मित होती है. 
हमारा विचार है कि पीड़ित का उपचार होना चाहिए...न कि उसे उपेक्षा और दंड का भागी घोषित कर देना चाहिए. किसी रोग से ग्रस्त होना अपराध नहीं है.....विवाह विच्छेद एक दांडिक निर्णय है जिसे सम्बंधित रोगी भोगने के लिए बाध्य होता है. मज़े की बात यह भी है कि ऐसा रोगी अपने बचाव के लिए भी मानसिक रूप से सक्षम नहीं होता. 

परिचय :- 
शिज़ोफ्रेनिया एक ऐसी मानसिक व्याधि है जिसके कई कारण हो सकते हैं और .....जिसमें कई प्रकार के लक्षण प्रकट हो सकते हैं. ऐसा व्यक्ति अपनी क्षमताओं का सही उपयोग करने में समर्थ नहीं हो पाता. उच्च शिक्षित व्यक्ति भी इस रोग के शिकार हो सकते हैं. इनका चिंतन एक दिशा विशेष में होता है जिससे किसी भी विषय पर सम्यक चिंतन न होकर दोषपूर्ण चिंतन होता है. सत्य को असत्य और असत्य को सत्य समझना इनकी विशेषता होती है...इसे अतत्वाभिनिवेश कहते हैं.  

कारण :- 
शिजोफ्रेनिया के ज्ञात / अनुमानित कारणों को कई श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है यथा -
१- जेनेटिक थ्योरी 
२- न्यूरो केमिकल थ्योरी. 
३- इंडोक्राइन थ्योरी. 
४- इनफेक्शियस या इम्यून थ्योरी. 
५- डेवलपमेंटल थ्योरी 
६- न्यूट्रीशनल थ्योरी.
७- स्ट्रेस थ्योरी .     

इसके कारणों में संक्रमण से सम्बंधित अवधारणा में कुछ रोचक तथ्य प्रकाश में आये हैं. यथा, "टोक्सोप्लाज्मा गोंडी" एक परजीवी प्लाज्मोडियम है जो कि बिल्लियों को संक्रमित करता है. जहाँ बिल्लियाँ अधिक पायी जाती हैं वहाँ मनुष्यों में शिज़ोफ्रेनिया भी अपेक्षाकृत अधिक पाया जाता है. ( Yolken  and  Torrey )
. T.gondii constructing daughter scafolds within the mother cell.
File:Toxplasma.png
Toxoplasma gondii 

Studies have also shown behavioral changes in humans, including slower reaction times and a sixfold increased risk of traffic accidents among infected males,[12] as well as links to schizophrenia including hallucinations and reckless behavior. Recent epidemiologic studies by Stanley Medical Research Institute and Johns Hopkins University Medical Center indicate that infectious agents may contribute to some cases of schizophrenia.[13][14] A study of 191 young women in 1999 reported higher intelligence and lower guilt proneness in Toxoplasma-positive subjects.[15]
The prevalence of human infection by Toxoplasma varies greatly between countries. Factors that influence infection rates include diet (prevalence is possibly higher where there is a preference for less-cooked meat) and proximity to cats.[16]
कुछ वायरस यथा, हर्पीज सिम्प्लेक्स और साइटोमीगेलो वायरस यदि किसी जींस विशेष पर आक्रमण करें तो उस व्यक्ति में शिज़ोफ्रेनिया की संभावनाएं बढ़ जाती हैं. ( Catherine  Harrison , मेडिकल रिव्यू बोर्ड).

लक्षण :-
          शिजोफ्रेनिया के रोगी सामान्यतः बुद्धिमान से प्रतीत होते हैं किन्तु यदि ध्यान से उनकी बातों का विश्लेषण किया जाय तो उनके विचारों व तर्कों में असहजता स्पष्ट परिलक्षित होती है. उनके तर्क निराधार, अप्रासंगिक और विचित्र होते हैं. लक्षणों में उतार-चढ़ाव देखा जा सकता है. उतरते लक्षणों के समय या शांत स्थिति में ये बुद्धिमत्तापूर्ण या कलात्मक प्रतिभा का अच्छा प्रदर्शन करते हैं. इसलिए घर या पड़ोस के लोगों को उनकी सही मानसिक स्थिति का अनुमान तक नहीं हो पाता. लक्षणों में चढ़ाव के समय इनका व्यवहार विचित्र हो जाता है...दैनिक जीवन असामान्य हो जाता है ....जिसका स्पष्ट दुष्प्रभाव घर के अन्य सदस्यों एवं संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति पर देखा जा सकता है. यहाँ तक कि इस दुष्प्रभाव से स्थानीय समाज में झंझावात सा चलने लगता है. 
आयुर्वेद की दृष्टि से यह त्रिदोषज व्याधि है जिसमें सतोगुण की हीनता तथा तमोगुण एवं रजोगुण की वैकृतिक    वृद्धि हो जाती है. शिज़ोफ्रेनिक रोगी में तमोगुण एवं रजोगुण के वैकृतिक लक्षण स्पष्ट देखे जा सकते हैं. तमोगुण के कारण सत्य को असत्य एवं असत्य को सत्य समझना और रजोगुण के कारण विचारों में चांचल्यता, कथन में अस्थिरता व परस्पर विरोध देखा जा सकता है.  यदि रोगी उच्च शिक्षित है तो उसके तर्कों में वैज्ञानिक शब्दों का प्रयोग भले ही मिले पर  तात्विक दृष्टि से वे अवैज्ञानिक ही होते हैं. वे जानते हैं कि ब्रह्म निराकार है पर वे यह प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं कि उन्होंने ब्रह्म का साक्षात दर्शन किया है या शिव/ विष्णु उनसे रोज बात करते हैं और पास आकर बैठे रहते हैं. इनमें हीन और उच्च भावनाएं दोनों एक साथ मिल सकती हैं. अहंकार का प्रदर्शन इनमे पाए जाने वाले लक्षणों में सामान्य है. ये रोगी प्रायः हिंसक नहीं होते तथापि इनमें आत्मह्त्या की प्रवृत्ति पायी जाती है. पुरूषों की अपेक्षा स्त्रियों में यह प्रवृत्ति अधिक मिलती है. 
यद्यपि, सरलता की दृष्टि से इनमें पाए जाने वाले लक्षणों का वर्गीकरण किया गया है पर लक्षणों में व्यक्ति-व्यक्ति के अनुसार भिन्नताएं मिलती हैं साथ ही सभी लक्षणों का एक ही रोगी में पाया जाना भी आवश्यक नहीं. 


१- पोजिटिव लक्षण -
असामान्य विचार या अनुभूतियाँ, ध्वनि या दृश्य की भ्रांतियां, विचार वैगुण्यता, असामान्य गति. कैटाटोनिया, पैरानोइड शिज़ोफ्रेनिया.


२- निगेटिव लक्षण :- दैनिक जीवन से प्रसन्नता का लोप, योजना क्रियान्वयन में शिथिलता, बोलने एवं भावाभिव्यक्ति में शिथिलता. 


३- अभिज्ञानहीनता - सूचनाओं को समझने , उन्हें अभिव्यक्त करने और उनके आधार पर निर्णय लेने में अक्षमता. ध्यान में कमी, तत्काल  प्राप्त  सूचनाओं की विस्मृति के कारण उनके युक्तियुक्त प्रयोजन में अक्षमता.


४- मिश्रित लक्षण :- इस लक्षण समूह में मिले-जुले लक्षण प्रकट होते हैं.     


रोग पहचानने के प्रारम्भिक लक्षण :-
अंतर्मुखी हो जाना. अवसाद, संदेह, स्वाभिमान में कमी, असुरक्षा का भाव, अतिनिद्रा या अनिद्रा, व्यक्तिगत साफ़-सफाई में कमी, अप्रासंगिक कथन, भावहीन चेहरा एवं घूरना, एकाग्रता में कमी, बिना किसी पर्याप्त कारण के रोना या हंसना, परस्पर विरोधी कथन, चित्त एवं विचारों में अस्थिरता, स्वयं की आलोचना के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया, विचित्र शब्दों का प्रयोग....आदि.


चिकित्सा :- 
शिजोफ्रेनिया की चिकित्सा संभव है. किन्तु इसमें सबसे बड़ी परेशानी यह आती है कि रोगी स्वयं को पूरी  तरह स्वस्थ्य मानता है इसलिए वह चिकित्सा के लिए तैयार ही नहीं होता. यदि किसी तरह रोगी को चिकित्सा के लिए राजी कर लिया जाय तो सही चिकित्सा से लक्षणों में शीघ्र ही सुधार दिखाई देने लगता है. 
यह देखा गया है कि शिजोफ्रेनिया की चिकित्सा में कारणानुरूप एलोपैथिक औषधि के साथ-साथ आयुर्वेद की उपयुक्त औषधियाँ लेने से अपेक्षाकृत शीघ्र और स्थायी लाभ मिलता है. चिकित्सा में किंचित जटिलता के कारण औषधीय एवं मनोचिकित्सा के साथ-साथ पारिवारिक व सामाजिक सहयोग की अपेक्षा विशेषरूप से विचारणीय हैं. 
इन रोगियों में आत्मरति भी पायी जाती है. ये अधिक से अधिक लोगों का ध्यान अपनी और आकृष्ट करने का प्रयास करते हैं. ये चाहते हैं कि लोग उनसे प्यार करें ..उनका ध्यान रखें ...उनकी प्रशंसा करें ....पर वे स्वयं दूसरों से घृणा करते हैं इसलिए इनकी मनः स्थिति को जानते हुए परिवार के सदस्यों और अन्य सभी परिचितों से अपेक्षा की जाती है कि वे रोगी के प्रति सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करें न कि उसके व्यवहार के लिए उससे झगड़ा करें या उसे किसी भी तरह से अपमानित करने का प्रयास करें. यह चिकित्सा का सबसे बड़ा पक्ष है ......इसे सामाजिक उत्तरदायित्व की तरह स्वीकार किया जाना चाहिए. 
समाज से भी बड़ा उत्तरदायित्व रोगी के स्वजनों का होता है कि वे रोग की स्वयं पहचान करें और निदान के सुनिश्चितीकरण के लिए उसे चिकित्सक के पास ले जाएँ. समस्या का सही समय पर निदान ही उसकी सही चिकित्सा का प्रथम और सबसे अनिवार्य चरण है.  


            ॐ !!! सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः  .....
                             तमसो मा ज्योतिर्गमय .....