ब्रह्माण्ड के रहस्योद्घाटन की यात्रा में हमारी यह जिज्ञासा हमें आश्चर्यचकित करती है कि प्रकृति सूक्ष्म स्तर पर इतनी जटिल क्यों है ?
सामान्यतः , अपने दैनिक जीवन में हम छोटी और कम महत्त्वपूर्ण चीजों को छोड़कर अपेक्षाकृत बड़ी और अधिक महत्त्वपूर्ण चीजों की ओर भागते रहने के अभ्यस्त हैं. एक छोटे से कंकड़ की अपेक्षा विशाल पर्वत हमें अधिक आकर्षित करता है.
जो जितना सहज दृष्टव्य और प्राप्य है वह उतना ही सरल है.
"अव्यक्त" ( अनमेनिफेस्ट ) अपनी संपूर्णता के साथ कभी भी व्यक्त नहीं हो पाता. वह आंशिक रूप में ही व्यक्त हो पाता है.
जो व्यक्त है वह सीमित है, व्यक्त स्वरूप में होने के कारण हमारी सामर्थ्य भी सीमित है किन्तु अव्यक्त......वह तो अनन्त और असीमित है. इसीलिये जो आंशिक है .....जो हमारी सामर्थ्य सीमा में है वह किंचित बोधगम्य हो जाता है.
सृष्टि उत्पत्ति के क्रम में सब कुछ अनायास ही नहीं प्रकट हो जाता.....विभिन्न चरणों में स्थूलीकरण संभव हो पाता है.
जो जितना अधिक व्यक्त है वह उतना ही अधिक बोधगम्य है.......जो जितना अधिक अव्यक्त है वह उतना ही अधिक दुर्बोध और जटिल है. हम जैसे-जैसे सूक्ष्मता (अव्यक्त ) की ओर बढ़ते जायेंगे ....वह उतना ही जटिल होता जाएगा.
स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा में हमारी इन्द्रियों की सीमाएं स्पष्ट होने लगती हैं. एक-एक कर सारी इन्द्रियाँ साथ छोड़ने लगती हैं.....तब हमें वैज्ञानिक विकल्पों का सहारा लेना पड़ता है...किन्तु उनकी भी अपनी सीमायें हैं ......अंत में हम असहाय हो जाते हैं ......क्योंकि अब तक हमारी सारी सीमाएं समाप्त हो चुकी होती हैं .
परम सत्ता को हम अनादि.... अनंत... अखंड...... निराकार... स्वीकारते आए हैं. भौतिक संसाधनों से इसका विश्लेषण ...इसकी व्याख्या सरल है क्या ?
निराकार की कल्पना कैसे की जाय ? हम निराकार को न तो देख सकते हैं .....न उसकी कल्पना कर सकते हैं. यही तो जटिलता है.
निराकार से साकार के व्यक्तिकरण में यह जटिलता क्रमशः कम होती जाती है. जो कम व्यक्त है वह अधिक जटिल है .....जो जितना अधिक व्यक्त है वह उतना ही कम जटिल होता जाता है....क्योंकि वह हमारी इन्द्रियों के लिए अधिक बोधगम्य हो जाता है.
सृष्टि उत्पत्ति का क्रम है -
अव्यक्त से महत्तत्व ( condensation) ,
महत्तत्व से अहंकार ( isness ) ,
अहंकार से पञ्चतन्मात्रा ( precursors of qualities ) ,
पंचतन्मात्रा से पंचमहाभूत ( qualities ),
और पञ्चमहाभूतों से सबएटोमिक पार्टिकल्स .....
और इसके बाद का मैनीफेस्टेशन सब जानते हैं.
सरलता क्रमशः बढ़ती जाती है .....किन्तु तंत्र क्रमशः जटिल होता जाता है. हीलियम की अपेक्षा स्वर्ण का तंत्र अधिक जटिल है....तथापि दुर्बोध नहीं.
प्रोटोज़ोआ की अपेक्षा मनुष्य का तंत्र अपेक्षाकृत अधिक जटिल है.
स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म की व्यापकता भी बढ़ती जाती है. जो व्यापक है उसे अव्यापक की बोधगम्य सीमाओं में कैसे लाया जा सकता है भला ?
जो व्यक्त है वह सीमित है, व्यक्त स्वरूप में होने के कारण हमारी सामर्थ्य भी सीमित है किन्तु अव्यक्त......वह तो अनन्त और असीमित है. इसीलिये जो आंशिक है .....जो हमारी सामर्थ्य सीमा में है वह किंचित बोधगम्य हो जाता है.
सृष्टि उत्पत्ति के क्रम में सब कुछ अनायास ही नहीं प्रकट हो जाता.....विभिन्न चरणों में स्थूलीकरण संभव हो पाता है.
जो जितना अधिक व्यक्त है वह उतना ही अधिक बोधगम्य है.......जो जितना अधिक अव्यक्त है वह उतना ही अधिक दुर्बोध और जटिल है. हम जैसे-जैसे सूक्ष्मता (अव्यक्त ) की ओर बढ़ते जायेंगे ....वह उतना ही जटिल होता जाएगा.
स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा में हमारी इन्द्रियों की सीमाएं स्पष्ट होने लगती हैं. एक-एक कर सारी इन्द्रियाँ साथ छोड़ने लगती हैं.....तब हमें वैज्ञानिक विकल्पों का सहारा लेना पड़ता है...किन्तु उनकी भी अपनी सीमायें हैं ......अंत में हम असहाय हो जाते हैं ......क्योंकि अब तक हमारी सारी सीमाएं समाप्त हो चुकी होती हैं .
परम सत्ता को हम अनादि.... अनंत... अखंड...... निराकार... स्वीकारते आए हैं. भौतिक संसाधनों से इसका विश्लेषण ...इसकी व्याख्या सरल है क्या ?
निराकार की कल्पना कैसे की जाय ? हम निराकार को न तो देख सकते हैं .....न उसकी कल्पना कर सकते हैं. यही तो जटिलता है.
निराकार से साकार के व्यक्तिकरण में यह जटिलता क्रमशः कम होती जाती है. जो कम व्यक्त है वह अधिक जटिल है .....जो जितना अधिक व्यक्त है वह उतना ही कम जटिल होता जाता है....क्योंकि वह हमारी इन्द्रियों के लिए अधिक बोधगम्य हो जाता है.
सृष्टि उत्पत्ति का क्रम है -
अव्यक्त से महत्तत्व ( condensation) ,
महत्तत्व से अहंकार ( isness ) ,
अहंकार से पञ्चतन्मात्रा ( precursors of qualities ) ,
पंचतन्मात्रा से पंचमहाभूत ( qualities ),
और पञ्चमहाभूतों से सबएटोमिक पार्टिकल्स .....
और इसके बाद का मैनीफेस्टेशन सब जानते हैं.
सरलता क्रमशः बढ़ती जाती है .....किन्तु तंत्र क्रमशः जटिल होता जाता है. हीलियम की अपेक्षा स्वर्ण का तंत्र अधिक जटिल है....तथापि दुर्बोध नहीं.
प्रोटोज़ोआ की अपेक्षा मनुष्य का तंत्र अपेक्षाकृत अधिक जटिल है.
स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म की व्यापकता भी बढ़ती जाती है. जो व्यापक है उसे अव्यापक की बोधगम्य सीमाओं में कैसे लाया जा सकता है भला ?
( इस आलेख के लिए शीर्षक आशीष श्रीवास्तव जी के आलेख से लिया गया है......साभार ...)