बुधवार, 31 दिसंबर 2014

सेक्स एजूकेशन की भारत में अवधारणा और आवश्यकता


        आज फिर एक प्राचार्य को अपनी छात्रा से छेड़-छाड़ के आरोप में पिटते हुये टीवी पर दिखाया गया । अपवित्र होती जा रही पवित्र पाठशालाओं का वातावरण एक नये भारत की रूपरेखा बना रहा है । वहीं सेक्स एजूकेशन पर शिक्षाविदों के विचार स्पष्ट नहीं हो पा रहे हैं । कुल मिलाकर धरती से परे अंतरीक्ष में अपनी पहुँच बनाने वाले भारत के लोग अपनी धरती पर अपने बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के मामले में बुरी तरह दिग्भ्रमित हैं । यदि केवल इसी शताब्दी की बात करें तो अब तक शिक्षा को लेकर कई असफल प्रयोग हो चुके हैं । असफल प्रयोगों की यह श्रंखला अभी भी समाप्त नहीं हुयी है । स्वीडन जैसे कई योरोपीय देशों में प्राथमिक से लेकर उच्चशिक्षा तक न केवल सब कुछ निर्धारित है अपितु निःशुल्क भी है जबकि भारत में भारी-भरकम शुल्क देने के बाद भी शिक्षा का न तो कोई स्तर है और न ही कोई दिशा । पाठक्रमों से लेकर विषयों के चयन तक में गुणवत्ता के स्थान पर राजनैतिक लक्ष्यों को प्राथमिकता दी जाने लगी है । पिछली शताब्दी के पाँचवे-छठे दशक के बाद से लेकर शिक्षा का स्तर अद्यतन गिरता गया है । इस बीच एड्स जैसी मारक और अचिकित्स्य व्याधि की चपेट में युवाओं के आने से चिंतित हुयी सरकारों ने पश्चिमी देशों की देखा-देखी भारत में भी यौनशिक्षा दिये जाने पर विचार करना प्रारम्भ किया ।


      सेक्स एजूकेशन का नाम लेते ही आम भारतीयों के मस्तिष्क में वात्स्यायन के कामसूत्रों की छवियाँ उभरने लगती हैं और पूर्वाग्रहों के अंकुर विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार करने लगते हैं । यह एक ऐसा विषय है जो परम्परावादी भारतीयों को उद्वेलित कर देता है । पश्चिमी देशों में इसकी आवश्यकता हो सकती है किंतु भारत में इसकी अवधारणा को बड़ी सावधानी से समझने और स्पष्ट किये जाने की आवश्यकता है । वास्तव में इस सारे विमर्श का विषय ही भारतीय मनोवृत्ति के अनुकूल नहीं है । शिक्षाविदों को पहले तो यह स्पष्ट करना होगा कि इस विषय में हमारी समस्यायें और प्राथमिकतायें हैं क्या ?

       यदि हमें अपनी पीढ़ी को कामकला में दक्ष करना है तो सेक्स एजूकेशन या यौन शिक्षा पूरी तरह उपयुक्त है किंतु यदि हमारा लक्ष्य यौन संसर्गजन्य रोगों के प्रति नयी पीढ़ी को जानकारी देकर उन्हें सावधान करना है तो इसके लिये चिकित्सा विज्ञान का संदर्भित ज्ञान दिया जाना उपयुक्त होगा । दुर्भाग्य से भारतीय शिक्षाविद अपने लक्ष्य को लेकर अभी तक एक मत नहीं हो सके हैं । मैं अभी तक जो समझ सका हूँ उसके अनुसार तो वे नयी पीढ़ी को सुरक्षित यौन सम्बन्धोंकी जानकारी देकर यौनसंसर्गजन्य रोगों से बचाना चाहते हैं । इससे एक बात तो स्पष्ट है कि हमारे शिक्षाविद् किशोर-किशोरियों या अविवाहित युगलों में विवाहपूर्व यौनसम्बन्ध स्थापित किये जाने को लेकर चिंतित नहीं हैं । उनकी चिंता केवल असुरक्षित यौन सम्बन्ध स्थापित किये जाने को लेकर है जबकि भारतीय जनमानस की चिंता विवाहपूर्व यौनाचार में होती जा रही वृद्धि को लेकर है ।

       यौनसंसर्गजन्य रोगों से बचने के लिये ब्रह्मचर्य भी एक श्रेष्ठ उपाय हो सकता है, भारत की आधुनिक चिकित्सा में अभी इस उपाय पर चिंतन की आवश्यकता नहीं समझी जा रही है । जबकि पश्चिमी देशों में नैतिक और धार्मिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किये जाने की आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा है । भारत की मूल चिकित्सा पद्धति आयुर्वेदमें व्यक्तिगत आचरण एवं प्रज्ञापराध के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभावों पर गम्भीरता से चिंतन किया गया था जिसके परिणामस्वरूप सम्यक आहार-विहारजैसे विषय विकसित हो सके । पिछले कुछ दशकों में पश्चिमी देशों ने कल्चरल साइकियाट्री’, ‘रिलीजन एण्ड मेंटल हेल्थऔर इण्टर- कल्चरल क्लीनिकल प्रेक्टिसजैसे विषयों को अस्तित्व में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है । पश्चिमी देशों में, वहाँ की सामाजिक और पारिवारिक संरचना से उपजे विघटन मानसिक और वैचारिक विचलन के कारण रहे हैं । तुलनात्मक दृष्टि से भारत में यह स्थिति किंचित भिन्न है । भारतीय समाज में हो रहे मानसिक और वैचारिक विचलन का कारण भारत का पश्चिमीकरण और भारतीय जीवनमूल्यों में प्रज्ञापराध के कारण होने वाला पतन है । आयुर्वेद के सिद्धांतानुसार भिन्न कारणों से उत्पन्न होने वाली समस्यायों का समाधान एक समान नहीं हो सकता । हमें भारत की परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार उपयुक्त समाधान खोजने होंगे ।       
        एक सबसे महत्वपूर्ण विषय तो यह है कि समाधान खोजने की दिशा में क्या हमें पश्चिमी देशों का अनुकरण करने की आवश्यकता है ? भारतीय परिवेश में यह एक विवादास्पद विषय हो गया है कि क्या हमें अपने किशोरवय लड़के-लड़कियों को सुरक्षित यौन सम्बन्धों के तरीके बताने चाहिये ? कुछ विद्वानों का मत है कि एड्स, सिफ़िलिस और गोनोरिया जैसी व्याधियों से बचाने के लिये हमें अपनी पीढ़ी को सुरक्षा के वे सारे उपाय बताने चाहिये जो चिकित्सा विज्ञान द्वारा प्रमाणित हो चुके हैं और सावधान लोगों द्वारा अपनाये जा रहे हैं जबकि भारतीय मानसिकता इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है । मैं स्वयं इस तर्क के विरुद्ध हूँ, किंतु वी.डी. की शिक्षा दिये जाने के पक्ष में हूँ । कारण यह है कि जब चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से कोई बात रखी जाती है तो वहाँ कामका भाव या उसके प्रति जिज्ञासा उत्पन्न ही नहीं होती । जब किशोर-किशोरियों को कक्षा में वी.डी. की इटियोलॉजी, पैथोलॉजी और रोग की भयावहता के लक्षण और प्रॉग्नोसिस पढ़ायी जायेगी तो वे विवाहपूर्व यौन सम्बन्धों के बारे में सोच भी नहीं सकेंगे । अब शिक्षाविदों को निर्धारित यह करना होगा कि चिकित्सा विज्ञान का कितना अंश इन विद्यार्थियों को पढ़ाया जाना उचित होगा जिससे विषय की दुरूहता आड़े न आये और लक्ष्य की उपलब्धि भी हो जाय । हाँ ! इसमें एक सावधानी की भी आवश्यकता है, और वह यह कि यह शिक्षा सामान्य शिक्षकों द्वारा न दी जाकर केवल चिकित्सकों द्वारा ही दी जाय ।   

बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

भोजन में घुल रहा है ज़हर

आँगनबाड़ी केन्द्रों, शालाओं, छात्रावासों और आश्रमों में जो भोजन बच्चों को दिया जा रहा है वह कितना पोषक है यह जानने के बाद शायद आप अपने बच्चों को मध्यान्ह भोजन लेने से मना कर दें । मध्यान्ह भोजन पकाने के लिये जिन बर्तनों का उपयोग किया जाता है वे सब एल्यूमिनियम के बने होते हैं जो आपके भोजन को कितना विषाक्त कर देते हैं इस हक़ीक़त से बेख़बर आपके बच्चे कई ऐसी बीमारियों को आमंत्रित कर लेते हैं जिनका उपचार भी सम्भव नहीं है ।
          यदि आपके बच्चे को स्मरण शक्ति में कमी, मानसिक अवसाद, मुँह और जीभ में छाले, पेट दर्द, दमा, गुर्दे की बीमारी, अपेण्डीसाइटिस, आँख की बीमारी या बारम्बार दस्त होने की शिकायत है तो सम्भव है इसके पीछे एल्यूमिनियम के बर्तनों में बने भोजन के माध्यम से बच्चे के शरीर में पहुँचा हुआ ज़हर एक कारण हो । इतना ही नहीं ऐसे बच्चों में आगे चलकर मस्तिष्क की विकृति होकर अल्ज़ाइमर नामक असाध्य बीमारी होने की सम्भावना बढ़ जाती है । एल्यूमिनियम के बर्तन नम हवा, पानी और तापमान के सम्पर्क में आते ही ऑक्साइड बनाते हैं जो मनुष्य शरीर के लिये धीमे ज़हर की तरह काम करता है । भोजन पकाते समय ही नहीं बल्कि पका हुआ या बिना पका भोज्य पदार्थ भी यदि एल्यूमिनियम के बर्तन में रखा जाता है तो यह विष भोजन में घुल कर उसे विषाक्त बना देता है । दुर्भाग्य से शादी पार्टियों में, सार्वजनिक रूप से खाना पकाने वालों, होटल्स आदि में भी एल्यूमिनियम के बर्तनों का बहुलता से उपयोग किया जा रहा है जिसके कारण हम जाने-अनजाने अपने शरीर में एल्यूमिनियम ऑक्साइड नामक विष एकत्र करते जा रहे हैं ।
           आजकल पके हुए भोजन को एल्यूमिनियम के चमकीले पत्रों ( फ़ोइल्स) में पैक कर रखने की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही है । ऐसा भोजन भी विषाक्त हो जाता है । एल्यूमिनियम का यह विष जब भोजन के माध्यम से हमारे शरीर में पहुँचता है और किसी कारण से शरीर इसे बाहर नहीं निकाल पाता तो यह शरीर की विभिन्न कोशिकाओं में एकत्र होकर विकृति उत्पन्न करता है । एल्यूमिनियम का विष हमारी रोगप्रतिरोध क्षमता और प्रजनन क्षमता को प्रभावित करता है किंतु तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम) को सबसे अधिक क्षति पहुँचाता है जिसके कारण स्मृति लोप, अवसाद और अल्ज़ाइमर जैसी बीमारियाँ होने की सम्भावनायें होती हैं । 
          अमेरिका के हेल्थ एण्ड ह्यूमन सर्विसेज विभाग की एक संस्था “एजेंसी फ़ॉर टॉक्ज़िक सब्स्टेंसेज़ एण्ड डिसीज़ेज रज़िस्ट्री” ने कई सर्वेक्षणों और शोधों के पश्चात स्वास्थ्य के लिए घातक शीर्ष दो सौ विषों की सूची में एल्यूमिनियम को रखा है ।
          यूनियन ऑफ़ कंसंर्ड साइंटिस्ट्स के माइकल ब्रोअर और वार्न लिओन के अनुसार आस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट फ़ॉर बायो-मेडिकल रिसर्च के एक शोध में इस बात की पुष्टि हुई है कि एल्यूमिनियम सल्फ़ेट उपचारित टेप वाटर मात्र के उपयोग से ही लगभग सत्तर-अस्सी साल की उम्र तक आते-आते हमारे मस्तिष्क में एक माइक्रोग्राम की मात्रा में एल्यूमिनियम का विष एकत्र हो जाता है । मस्तिष्क की कोशिकाओं में इस विष के कारण अल्ज़ाइमर्स रोग उत्पन्न हो सकता है ।
           कील यूनीवर्सिटी में इनऑर्गेनिक कैमिस्ट्री के प्रोफ़ेसर एक्स्ले पिछले 25 वर्षॉं से भी अधिक समय से एल्यूमिनियम टॉक्ज़ीसिटी पर शोध कर रहे हैं । उनके अनुसार एल्यूमिनियम का विष अल्ज़ाइमर्स रोग के साथ-साथ पार्किंसन एवं मल्टीपल स्क्लेरोसिस की उत्पत्ति में भी सहयोगी हो सकता है ।

          जनता को अपने स्वास्थ्य के लिए स्वयं ही जागरूक होना होगा । एल्यूमिनियम के बर्तनों में पकाया हुआ या रखा गया या पैक किया हुआ भोजन आपके लिये विषाक्त है इसलिए लोगों को चाहिये कि अपने किचन से इन बर्तनों को निकाल कर बाहर करें और सार्वजनिक भोजन बनाने वाली उन संस्थाओं का भी बहिष्कार करें जो एल्यूमिनियम के बर्तनों में भोजन पकाती हैं । इतना ही नहीं सरकार को भी चाहिये कि शासकीय संस्थाओं में एल्यूमिनियम के बर्तनों के प्रयोग को प्रतिबन्धित करे और सार्वजनिक क्षेत्र की निजी संस्थाओं पर अंकुश रखने के लिए एक कानून बना कर भोजन के लिए एल्यूमिनियम के बर्तनों के प्रयोग को अपराध घोषित करे ।