गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

कला और जीवन

भारतीय चिंतकों एवं मनीषियों का मत रहा है कि धर्म-मूलक राजनीति ही राष्ट्र का कल्याण कर सकती है. राजनीति पर धर्म के अंकुश की बात आज अवांछनीय स्वीकार कर ली गयी है इसलिए वर्त्तमान में धर्म और राजनीति को पृथक कर दिया गया है ....परिणाम सबके सामने है. इसी तरह विक्टर कजिन नें जीवन से कला को पृथक करने की वकालत करके न तो कला का कुछ भला किया और न ही मानव समाज का. वर्त्तमान दौर प्रज्ञापराध ( Intellectual blasphemy )का चल रहा है. ज़ो हित में अहित और अहित में हित को देखता व स्थापित करता है .....वह प्रज्ञापराधी है ... कालान्तर में तदैव सिद्धांत भी बन जाते हैं. ऐसे विकृत सिद्धांतों का खंडन कर प्राकृतिक सिद्धांतों की पुनर्स्थापना कर पाना बड़ा ही दुष्कर कार्य है ......तथापि हम इस विषय पर चिंतन तो कर ही सकते हैं. यह लेख इसी चिंतन का एक लघु प्रयास है.
सरकस के नटों के लिए कला का ज़ो अर्थ है वह रंगमंच के पात्रों के लिए नहीं है. कला का जानकार तो ठग भी होता है, प्राचीन काल में काशी की चौर्य कला प्रसिद्ध रही है. जासूस भी अपनी कला के बल पर ही रहस्यों का पता लगा पाता है, किन्तु किसी साहित्यकार या चित्रकार के लिए कला का अर्थ नितांत भिन्न है. सच तो यह है कि अपने विभिन्न रूपों में कला हमारे चारो ओर बिखरी हुयी है. अस्तु, मेरा अनुरोध है कि "कला " को परिमित न किया जाय अन्यथा कला के विस्तृत आयामों-स्वरूपों को समझाने में कठिनाई होगी और भ्रम भी. मैं गीत-संगीत, नृत्य-अभिनय, चित्रों-रंगों से आगे की कला की बात कर रहा हूँ. यह कला "आदि" की है ...."सृष्टि" की है. अमूर्त की अभिव्यक्ति है यह "कला". सृष्टि के आदि में जब सूक्ष्म सत्ता या अव्यक्त शक्ति नें अपने आप को भाव जगत में व्यक्त किया तब वह भी कला ही थी........ईश्वर की कला. इस कला नें अपने मूर्त स्वरूप से सभी को मोहित किया, इसीलिये विद्वानों नें इसे नाम दिया -"माया". इस "माया" का चितेरा ईश्वर है इसलिए उसकी सम्पूर्ण कला "विचित्र" है. मनुष्य द्वारा रचित कला "चित्र" है, विचित्र नहीं. इसका तो वह अधिकारी ही नहीं है ...और न ही इतना सामर्थ्यवान. कविता, कहानी, उपन्यास इन सब में लिखे गए शब्द हमारे मन मस्तिष्क में चित्र ही तो बनाते हैं.
जिस प्रकार "अमूर्त विचार" मूर्त भाव में प्रकट होकर कला बन जाते हैं उसी तरह "अव्यक्त शक्ति" व्यक्त भाव में प्रकट होकर ब्रह्माण्ड बन जाती है. दूसरे शब्दों में कहें तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ईश्वर रचित कला ही तो है. आयुर्वेद नें माना है कि मनुष्य का सूक्ष्म शरीर ही प्रकट होकर स्थूल के रूप में जीवन को धारण करता है. आशय यह कि जीवन भी एक कला है. दूसरे शब्दों में कहें तो जीवन को कलापूर्ण ढंग से जिया जाना चाहिए. आयुर्वेद नें विश्व को यही तो सिखाया है. गर्भाधान के संकल्प से लेकर जातक के जन्म और मृत्यु तक के सभी प् दा वों   को सुरुचिपूर्ण ढंग से जीना ही "जीवन की कला" है. आवश्यकता तो यह है कि विश्व समाज इस दुर्लभ कला को सीखकर अपने जीवन को चित्रित कर रंजित करले और वर्त्तमान जीवन शैली के दुष्परिणामों से स्वयं की रक्षा करे. आगे के लेखों में हम आयुर्वेद की इस दुर्लभ कला के दर्शन करेंगे. अभी तो ईश्वर की अनंत कला का दर्शन ही अभीष्ट है जहां ब्रह्माण्ड के सभी पिंड एक वृहत व्यवस्था के अंतर्गत गति करते हुए हमें न केवल आश्चर्यचकित करते हैं अपितु हमारे जीवन को प्रभावित भी करते हैं. यही कला रात को आकाश में टिमटिमाकर बच्चों को कौतूहल से भर देती है, तब उनके बाल-सुलभ मन में उत्पन्न हुए प्रश्नों के उत्तर दे सकना किसी कलाकार के ही वश की बात होती है. ईश्वर की यही परम कला जब धरती पर उतरती है तो कहीं पर्वत, कहीं घाटियाँ, कहीं झरने, कहीं हिम, कहीं जंगल, कहीं पुष्प .........न जाने किन-किन रूपों में प्रकट होकर पूरी धरती पर बिखर जाती है. क्या इस कला नें कभी हमें अपनी चुम्बकीय एवं मायावी शक्ति से अपनी ओर आकर्षित नहीं किया है ? क्या इस कला नें हमारे श्रांत-क्लांत तन-मन को कभी नव स्फूर्ति, शक्ति, उत्साह, सुख व शान्ति से भर नहीं दिया है ? क्या इस कला नें किसी दिव्य औषधि की तरह कभी हमारी उदासी और खिन्नता को दूर कर हमें प्रसन्नता का स्वास्थ्य लाभ नहीं दिया है ? इस अद्भुत कला से वंचित रहकर ही हम अपने दुर्भाग्य को स्वयं आमंत्रित करते हैं. आधुनिक भौतिक जीवन-शैली नें हमें प्रकृति की इस अमूल्य कला से दूर कर दिया है जिसके कारण हम नाना शारीरिक-मानसिक व्याधियों से ग्रस्त हो दुख और हताशा का जीवन जीने के लिए बाध्य हो गए हैं. 
अभी मैंनें कला के एक पक्ष की प्रसंगवश चर्चा की है. कला का एक शरीर-क्रियात्मक पक्ष भी है. आप किंचित ध्यान देंगे तो स्पष्ट हो जायेगा कि जैसे-जैसे हम कविता पढ़ते या सुनते जाते हैं वैसे-वैसे हमारे मस्तिष्क में शब्द या ध्वनि आकार ग्रहण करती है. इसी तरह कहानी या उपन्यास पढ़ते समय भी शब्द आकार ग्रहण करते रहते हैं....अर्थात कला की स्थितिज ऊर्जा मस्तिष्क में अपने गतिज स्वरूप में प्रकट होती रहती है. इस प्रकार की कला ज़ो मस्तिष्क को अधिक क्रियाशील बनाती है ...एक्टिव आर्ट है. इसके विपरीत चल-चित्र जगत की कला मस्तिष्क को किंचित उद्वेलित या रंजित भर ही कर पाती है ...अर्थात यह मस्तिष्क को अधिक  रचना-क्रियाशील  नहीं बनाती ....इसे हम पास्सिव-आर्ट की संज्ञा दे सकते हैं.
कला के लिए मैं जानबूझकर Active एवं Passive शब्दों का प्रयोग कर रहा हूँ और इस धृष्टता  के लिए सभी से क्षमाप्रार्थी भी. यदि मैं सक्रिय एवं निष्क्रिय शब्दों का प्रयोग करता तो किंचित कोई झमेला खड़ा हो सकता था कि कला भी कहीं निष्क्रिय होती है भला ! किन्तु सचमुच, विचार करने की बात है ....क्या आज  हम कला को निष्क्रिय नहीं बनाते चले जा रहे? 
"कला" वस्तुतः अमूर्त विचारों की मात्र मोहक अभिव्यक्ति ही नहीं अपितु वह सोद्देश्य बौद्धिक परिणति भी है. यही तो वे तत्व हैं ज़ो कला को एक्टिव एवं चिर बनाते हैं. जिस कला में इन दोनों तत्वों का अभाव होगा वह कला क्षणिक रंजक एवं पास्सिव मात्र होगी. दूर-दर्शन आदि के कार्यक्रम सूचनात्मक, रंजक एवं कभी-कभी विकृत भी होते हैं .....इनमें प्रदर्शित कला मन-मस्तिष्क को प्रखर नहीं बनाती. दृश्य हमारी दृष्टि के सामने होते हैं. शब्दों या ध्वनि से मन में प्रतिक्रिया हो कर दृश्य रचना जैसी कोई स्पष्ट प्रक्रिया नहीं हो पाती. अर्थात सब कुछ "तैयार" रहता है. यह ठीक गणित और इतिहास पढ़ाने जैसा है. गणित हमारे मस्तिष्क को Active बनाता है जबकि इतिहास के मामले में मस्तिष्क "Passive" रहता है. मस्तिष्क में घटने वाली Passive घटना का स्पष्ट परिणाम यह होता है कि हमारा मन-मस्तिष्क कल्पनाशील और प्रखर नहीं बन पाता. इसीलिये मैंने कला को Active  और Passive -इन दो वर्गों में बाटने का दुस्साहस किया है.
मस्तिष्क में कला की रचना-यात्रा विचारों-भावनाओं से कला की ओर एवं पुनः कला से विचारों-भावनाओं की दिशा में होती है. कला की शक्ति का यह स्थितिज एवं गतिज स्वरूप है. विचार और भावनाएं जब तक मन में हैं ...वे अमूर्त रहते हैं ....जब प्रकट होते हैं तो कला बन जाते हैं. यह प्रक्रिया तो कलाकार तक ही सीमित रहती है, किन्तु कलाकार के अतिरिक्त अन्य लोगों के मन में भी कला अपनी प्रतिक्रियाओं से पुनः विचार एवं भाव उत्पन्न करती है. अतः इस रूप में कला उत्प्रेरक भी है...अर्थात कला लोगों के लिए उत्प्रेरण का कार्य कर उनके मन में नवीन विचारों-भावों की सृष्टि करती है. दूसरे शब्दों में अमूर्त से मूर्त एवं पुनः मूर्त से अमूर्त की ओर कला की रचना-यात्रा होती रहती है. अब यदि कला बौद्धिक एवं उद्देश्यपूर्ण भी हो तो वह निश्चित ही अपनी रचना-यात्रा में सफल होगी. 
ऐसा माना जाता है कि कला हमारे विचारों को प्रभावित करती है और विचार हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं. आज मनुष्य नें भौतिक ज्ञान में ज़ो उपलब्धियां प्राप्त की हैं उसके परिणामस्वरूप हमारे बच्चों को पाठशालाओं में "सूचनात्मक-ज्ञान" ही रटाया जा रहा है. Active art  से  दूरी के कारण यह ज्ञान उनमें सद-विचार नहीं जगा पाता. बच्चे ख़ूब सूचनाएं एकत्र करते हैं ...उन्हें रटते हैं ...फिर परीक्षा में सूचनाओं का यथाशक्ति वमन कर देते हैं. आज यह वमन ही उनकी योग्यता का माप-दंड बन गया है. इसी योग्यता के बल पर आगे चलकर वे बड़े-बड़े अधिकारी बनते हैं और आर्थिक, भौतिक, सामाजिक....चारित्रिक.......हर प्रकार के अपराधों के लिए राजाज्ञा प्राप्त कर लेते हैं. ऐसे लोग समाज, राष्ट्र और मानवता...सभी के लिए घातक होते हैं. कारण .....? कारण यह है कि वे या तो कला से दूर रहे ...या Passive कला के प्रेमी रहे जिसने उन्हें विचार नहीं दिए...भावनाएं नहीं दीं और उन्हें अच्छी दिशा में गति करने की प्रेरणा नहीं  दी. 
कुछ लोग मानते हैं कि कला तो हृदय का विषय है और ज्ञान मस्तिष्क का. मुझे इस धारणा में कुछ आपत्ति है. एक चिकित्सक होने के नाते मैं मानता हूँ कि कला के बीज मस्तिष्क में उत्पन्न होते हैं और हृदय की कोमलता से सिंचित हो अंकुरित...पल्लवित...एवं पुष्पित होते हैं ईश्वर नें इतनी जटिल एवं परा-वैज्ञानिक सृष्टि की रचना कर इसका प्रमाण भी हमें दे दिया है. इस प्रकार से यह हम सबके लिए एक सन्देश भी है कि कला-रहित ज्ञान मनुष्य का कल्याण नहीं ...विनाश ही करेगा. ओसामा-बिन-लादेन, परवेज़ मुशर्रफ, जार्ज बुश, सद्दाम हुसैन और एरिअल शेरोन जैसे निष्ठुर ज्ञानियों को ईश्वर की अपरिमित "सृष्टिरूपी-कला" के विभिन्न रागों से सीख लेना चाहिए. ये लोग कला और जीवन दोनों को निरंतर क्षति पहुंचाए चले जा रहे हैं. अब अपने सुखमय जीवन के लिए विवेकपूर्ण निर्णय लेने की बारी हमारी है.      

          
            

रविवार, 5 दिसंबर 2010

घर में बनाइये मोइश्चराइज़र

किसी शिशु के गोरे-गुलाबी गालों के स्पर्श की अनुभूति देने जैसी शीत ऋतु तो आ गयी.....पर इन गालों की कोमलता बनाए रखना ........सचमुच किसी समस्या से कम नहीं  है. पर प्रकृति नें अपने खजाने में इस समस्या का हल भी छिपा रखा है आपके लिए, तो चलिए खोजते हैं ...क्या है इस खजाने में. पहले एक काम करते हैं .....आप बाजार से ग्लिसरीन और गुलाब-जल ले आइये ..तब तक हम कहीं से जुगाड़ करते हैं ताजे नीबुओं का.  
.........ले आये ! चलिए, आज आप अपने शरीर की त्वचा को कोमल बनाए रखने के लिए घर में ही बनाइये एक अच्छा सा मोइश्चराइज़र, विधि हम बताये दे रहे हैं -
ग्लिसरीन -    ६० मिली ली.
गुलाब जल  -    ३० मिली ली. 
ताजे नीबुओं का रस - १० मिली ली. 
एक साफ़ कांच की शीशी में इन सबको उपरोक्त मात्रा में लेकर मिला कर रख लें ....बस ! हो गया .... मोइश्चराइज़र तैयार है आपका. जब भी आवश्यकता हो इसकी कुछ बूँदें लेकर त्वचा पर लगा लें.
ग्लिसरीन त्वचा की नमी को बनाए रखती है, गुलाब-जल त्वचा के वर्ण को निखारता है और नीबू का विटामिन सी.त्वचा को पोषण तो देता ही है ......मृत कोशिकाओं को भी शरीर से सरलता से पृथक करनें में सहयोग करता है. इतने गुण और कहाँ मिलेंगे आपको ? तो आजसे महंगे मोइश्चराइज़र खरीदना बंद.
स्वदेशी अपनाइए .....देश बचाइये ......(अउर भइया पकेटवा का पईसवा भी त बचेगा न ! ई काहे भूल रहे हैं ...)      

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

सिकलिंग -एक आनुवंशिक रोग .

सिकलिंग/सिकल सेल एनीमिया ....एक परिचय :- छत्तीसगढ़ एवं समीपवर्ती ओडीसा राज्य के कुछ जिलों में सिकलिंग एक जाना पहचाना रोग है ज़ो यहाँ की जन-जातियों के अतिरिक्त साहू,यादव, कुम्हार, सतनामी आदि जातियों में देखने को मिलता है. अभी तक यह लाइलाज है किन्तु संभव है कि आने वाले समय में जेनेटिक इंजीनियरिंग के द्वारा इसके लिए उत्तरदायी जीन को ठीक किया जा सके. लेकिन तब तक इस गंभीर रोग को नियंत्रित किये जाने के कुछ उपाय तो किये ही जा सकते हैं. बेहतर हो कि प्रभावित क्षेत्रों में सिकलिंग जीन वाले लोगों की पहचान की जाए और स्कूल-कालेजों  के माध्यम से लोगों को जागरूक किया जाय.
क्या है सिकलिंग ? - यह लाल रक्त कणों में पाए जाने वाले हीमोग्लोबिन की संरचनात्मक विकृति से उत्पन्न होने वाला रोग है. हीमोग्लोबिन  के निर्माण में लोहआयन- पोरफाईरिन  चेन एवं कई अमीनो एसिड्स भाग लेते हैं. सामान्य व्यक्ति के हीमोग्लोबिन में बीटा चेन के अमीनो-एसिड्स के छठवें क्रम पर  ग्ल्यूटामिक एसिड संलग्न रहता है किन्तु जीन म्यूटेशन या जेनेटिक मेटेरियल के डिलीशन से ग्ल्यूटामिक एसिड के स्थान पर "वैलीन" के कण संलग्न हो जाते हैं. बीटा चेन के १४६ अमीनो एसिड्स में से मात्र एक के स्थानापन्न से ही एक गंभीर एवं लाइलाज बीमारी उत्पन्न हो जाती है. वस्तुतः , इस  संरचनात्मक  विकृति के कारण ही हीमोग्लोबिन के कण ऑक्सीजन की कमी होने पर पॉलीमर बनाते हैं और क्रिस्टल के रूप में बदलकर रक्त-कण की मेम्ब्रेन की भीतरी सतह पर एकत्रित हो जाते हैं जिसके कारण रक्त कण का आकार विकृत होकर हंसिया की तरह हो जाता है . इस आकृति के कारण ही इस रोग का नाम सिकलिंग रखा गया है . किन्तु जिन लोगों के रक्त में सिकल सेल की संख्या ५०% तक होती है उन लोगों में रोग के लक्षण प्रायः उत्पन्न नहीं होते या बहुत कम होते हैं वह भी विशेष स्थितियों में ही .
सिकलिंग के रोगियों में मुश्किल तब शुरू होती है जब हंसिया के आकार वाली रक्त कणिकाएं अपनी आकृति के कारण छोटी-छोटी रक्त -केशिकाओं में फंस कर रह जाती हैं और आगे अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच पातीं . इससे रक्त केशिकाओं में मार्गावारोध होकर शरीर के उस अंग में रक्त का प्रवाह रूक जाता है इस स्थिति को इस्कीमिया कहते हैं जिसके परिणामस्वरूप इन्फार्क्शन जैसी गम्भीर स्थिति उत्पन्न हो जाती है. सिकल सेल एनीमिया के रोगियों में विभिन्न प्रकार के लक्षण उत्पन्न होते हैं, विकृति के आधार पर इन्हें चार समूहों में बाटा गया है :-
१- वैसो-ओक्ल्यूसिव क्राइसिस - यह अपने आप या किसी संक्रमण के पश्चात हो सकता है . रक्त प्रवाह में रूकावट के कारण प्रभावित अंग में  दर्द की शिकायत बनी रहती है .ऐसे शिशुओं में प्रारम्भिक लक्षण के रूप में हैण्ड-फूट सिंड्रोम मिल सकता है जिसमें हाथ-पैर में सूजन के साथ दर्द होता है . वयस्कों में हड्डियों के बड़े जोड़ों में सूजन के साथ दर्द हो सकता है . किसी-किसी को पेट में तीव्र दर्द होता है . इस्कीमिया यदि मस्तिष्क में हो तो स्ट्रोक आते हैं जिससे तुरंत मृत्यु हो सकती है या आधे शरीर का लकवा हो सकता है.फेफड़े की इस्कीमिया होने पर न्यूमोनिया जैसे लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं .
२- सीक्वेस्ट्रेशन क्राइसेस :- कभी-कभी किन्हीं कारणों से रक्त की अधिकाँश मात्रा का प्रवाह यकृत और तिल्ली की ओर हो जाता है जिससे शरीर के अन्य भागों को रक्त बहुत कम मिल पाता है , परिणामस्वरूप बड़ी तीव्रता से सर्क्युलेट्री कोलेप्स के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं.सिकलिंग पीड़ित शिशुओं में मृत्यु का यह एक बड़ा कारण है. ऐसी स्थिति में रोगी के शरीर में जल या रक्त चढ़ाकर स्थिति को नियंत्रित किया जा सकता है.
३- एप्लास्टिक  क्राइसिस :- इसमें रक्त निर्माण की प्रक्रिया ही फेल हो जाती है. यद्यपि यह एपीसोड १० से १४ दिन का होता है और बाद में स्वतः ही समाप्त भी हो जाता है.किन्तु कुछ रोगियों में तीव्रता से रक्ताल्पता के लक्षण उत्पन्न हो सकते हैं. 
४- हाइपर हीमोलिटिक क्राइसेस  :- यह स्थिति बहुत कम होती है . सिकलिंग के कुछ विशेष रोगियों में , यदि वे ऑक्सीडेंट ड्रग्स का उपयोग करते हैं या कोई संक्रमण हो जाए तो उन्हें यह क्राइसेस हो सकती है जिससे यकृत के कार्यों में अवरोध उत्पन्न  होकर जौंडिस हो सकती है . कभी-कभी तो ३ वर्ष तक के बच्चों में भी इस क्राइसिस के कारण पित्ताशय में पथरी बन जाया करती है. सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम में रक्ताल्पता से लकवा हो सकता है. किडनी में फाइब्रोसिस होकर किडनी खराब हो सकती है. 
सिकलिंग के प्रकार :- 
१- सिकल सेल ट्रेट (AS) या छोटी सिकलिंग - उन्हें होती है जिनके रक्त में माँ या पिता से प्राप्त जींस में से एक सामान्य और दूसरा असामान्य होता है . यह गंभीर तो नहीं होता पर कुछ स्थितियों में गम्भीर होकर रोगी को संकट में डाल सकते हैं . ये लोग किसी भी जीवाणु के प्रति अधिक सुग्राही होते हैं जिसके कारण बच्चों में फेफड़ों के रोग, सेप्टीसेमिया , न्यूमोकोकल मेनिन्जाईटिस,  ओस्टियोमाइलाइटिस आदि होने की संभावना  बनी रहती है.
२- दूसरे प्रकार को सिकल सेल डिसीज़ (SS) या बड़ी सिकलिंग -  कहते हैं , गंभीर स्थिति इसी के कारण उत्पन्न होती है. यदि इन्होंने जीवन में संयम  न बरता तो अल्पायु में इनकी मृत्यु भी हो सकती है. 
वंश परम्परा से होता है सिकलिंग :- भारत सहित विश्व के  अनेकों देशों में कुछ जाति-विशेष के लोगों में वंश परम्परा से यह रोग अगली पीढ़ियों में आगे बढ़ता है, अतः छोटे बच्चों में भी मिल सकता है ,फिर भी बच्चों में छः माह की उम्र के बाद ही इसके लक्षण प्रकट हो पाते हैं .
गंभीर हो सकता है सिकलिंग :-
सावधानी न बरतने पर , झोला छाप लोगों से इलाज़ कराने से एवं रक्ताल्पता अधिक बढ़ जाने से आधे शरीर का लकवा हो सकता है, या जोड़ों की सूजन अधिक समय तक बने रहने से अस्थियों के जोड़ों में विकृति हो कर लंगड़ापन हो सकता है या कभी-कभी मृत्यु भी हो सकती है.
सावधानी रखें दवा लेते समय :-
सिकलिंग के रोगियों को कोई अन्य रोग होने पर भी उस रोग से सम्बंधित दवाएं लेते समय सावधानी की अत्यंत आवश्यकता होती है. कुछ दवाएं ज़ो उन्हें हानि पहुंचा सकती हैं वे ये हैं - बुखार की दवाएं, सल्फोनामाइड,  मलेरिया की दवाएं,  नैफ्थाक्विनोलोन , नाइट्रओफ्यूरोंटोईन, एस्प्रिन,  आयरन के टॉनिक एवं विटामिन के. अतः अपने मन  से कभी दवाएं मत  लें. 
सिकलिंग थैलेसीमिया  और मलेरिया :-  सिकलिंग एवं थैलेसीमिया एक साथ मिल सकता है पर सिकलिंग के साथ मलेरिया प्रायः नहीं मिलता .अतः बुखार आने पर जांच कराये बिना मलेरिया की दवा मत लें . 
कैसे पहचानेंगे इसे ? 
यदि  बच्चों  के  हाथों -पैरों  में  सूजन के साथ दर्द हो, बार-बार सर्दी, खांसी, न्यूमोनिया होता हो, अंगों में पीड़ा हो, पेट में दर्द होता हो, कमजोरी लगती हो, और दवाइयां खाने पर भी लाभ न हो रहा हो रहा हो  तो सिकलिंग का संदेह कर सकते हैं. पेट में स्पर्श करने पर तिल्ली बड़ी हुई मिल सकती है . ऐसा होने पर रक्त का सिकलिंग टेस्ट कराना चाहिये . बेहतर हो कि हीमोग्लोबिन की इलेक्ट्रोफोरेटिक जांच कराई जाय .
सिकलिंग से प्रभावित होने वाले प्रमुख अंग :- अस्थियाँ, यकृत, तिल्ली, फेफड़े, मस्तिष्क और आँख.
कब प्रकट होते हैं लक्षण? 
संक्रमण होने से, ऑक्सीजन की कमी होने से, ऊंचे स्थानों में जाने से, व्यायाम अधिक करने से, शरीर में जल की कमी होने से, तेज सर्दी से , वाहनों के धुएं से, अम्लीय पदार्थों के सेवन से, गर्भावस्था में एवं प्रसव के बाद सिकलिंग (ट्रेट ) के रोगियों में रोग के लक्षण तीव्रता से प्रकट होने की संभावना रहती है.
कब कराएं जांच ?
सिकलिंग के पीड़ितों को चाहिए कि वे अपने बच्चों में नौ माह की उम्र के पहले ही हीमोग्लोबिन की इलेक्ट्रो फोरेटिक जांच करवा लें यह विश्वसनीय जांच है एवं एक बार करवा लेने के बाद बार-बार करवाने की आवश्यकता नहीं पड़ती. इस जांच में थैलेसीमिया का भी पता चल जाता है  ध्यान रहे रक्त का सामान्य सिकलिंग टेस्ट फाल्स निगेटिव या फाल्स पोसिटिव हो सकता है. 
सिकलिंग से बचने के उपाय :- 
१- यह एक आनुवंशिक रोग है अतः विवाह के पूर्व वर-वधु के रक्त की सिकलिंग जाच अवश्य कराएं . यदि दोनों में सिकलिंग हो तो विवाह मत कराएं. अगली पीढ़ियों में इसे रोकने का यही एक मात्र उपाय है. २- गर्भावस्था के समय संक्रमण से बचाव, कम से कम दवाओं का प्रयोग, एक्स-रे आदि परीक्षणों से यथासंभव बचाव करें तथा पौष्टिक आहार देवें, गर्भिणी का सुरक्षित प्रसव भी एक आवश्यक कदम है. 
उपचार की व्यवस्था :-
१- सिगरेट, शराब आदि नशों से परहेज़ करें २- अधिक परिश्रम से बचें,३ - संक्रमण से बचाव करें, ४ पौष्टिक एवं सुपाच्य आहार का सेवन करें, ५- लक्षणों की शान्ति हेतु धैर्य पूर्वक आयुर्वेदिक दवाओं का सेवन करें. 
सिकलिंग में लाभदायक है :- 
ख़ूब पानी पीना, मकोय, पुनर्नवा, चौलाई, डोडा शाक, मूंग दाल, सहजन, सिंघाड़ा, कमल नाल (ढेंस), कमल का बीज, दूध, मधु, रसीले तथा मीठे फल और खुले हवादार स्थानों में रहना. 
सिकलिंग में हानिकारक है:- 
तले एवं अम्लीय पदार्थ , मांसाहार, फावा-बीन, कोई भी नशा, किसी भी प्रकार का संक्रमण, वाहनों का धुंआ, ऊंचे  स्थानों पर रहना या पहाड़ों पर जाना, रेडियेशन, डिहाइड्रेशन,  एसिडोसिस एवं बिना डाक्टर की सलाह के कोई भी दवा सेवन करना.                 

शनिवार, 27 नवंबर 2010

आरोग्य चिंतन

बहुत पहले .......कभी एक तत्वज्ञानी नें मनुष्य को उपदेश दिया था- "धर्मार्थ काम मोक्षाणामारोग्यम   मूलमुत्तमम " .सभी  पुरुषार्थों का मूल है आरोग्य , इसलिए पहले उसी को साधना . सब कुछ साधने की धुन में मूल की उपेक्षा मत कर देना .
किन्तु किसी नें ध्यान नहीं दिया, परिणामतः जो मूल था वह गौण हो गया.... उसे छोड़ दिया और भागने लगे उसके पीछे जो था तो गौण  पर मूल की तरह अपना लिया गया था . ......भागने लगे  ..... आविष्कारों के पीछे .....नयी -नयी भौतिक उपलब्धियों के पीछे .  मनुष्य का जीवन अधिकाधिक सुविधाजनक होता चला गया .......
हाँ ! सुविधाजनक तो हुआ .....पर सरलता समाप्त हो गयी, जीवन की मौलिक लय खो गयी . जीवन में प्रकृति का मधुर और दिव्य संगीत समाप्त हो गया. 
वस्तुतः जिसे हम जटिलता कहते हैं, वही तो जीवन की सरलता है .... प्रत्युत आज जो सरलता प्रतीत हो रही है वही जटिलता है ....उलझाव है - इसे समझना होगा .
इस पृथ्वी पर मनुष्य नें अनेकों आश्चर्यजनक कार्य किये हैं. कलि-युग में तो मनुष्य निर्मित इन आश्चर्यों का विस्तार अद्भुत है. वह अपनी रचनाओं पर इतना मोहित है....इतना आसक्त है कि किसी निकम्मे पति  की तरह उन्हीं पर पूर्ण तयः आश्रित हो गया है . 
उपकरणों एवं भौतिक साधनों का आविष्कारक ...उनका निर्माता मनुष्य अब अपनी ही रचनाओं पर आश्रित हो गया है . उनके अभाव में अब वह अपने जीवन को पंगु और अशक्त पाता है .
जब निर्माता अपने निर्माण पर आश्रित हो जाता है तो अपने विनाश को आमंत्रित करता है . ...क्योंकि उसका साधन ही तब उसका साध्य बन चुका होता है.
एक बार ब्रह्मा जी अपनी पुत्री पर मोहित हो गए. सृष्टिकर्ता को अपनी सृष्टि के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए ..... पर ब्रह्मा जी हो गए. ब्रह्मा का यह आचरण विनाश को आमंत्रित करने वाला था अतः उनके मानस-पुत्र नारद को उनका मोह भंग करने का प्रयास करना पड़ा. ....नारद तो उनका मोह भंग करने में सफल रहे. ...वे ब्रह्मा थे, उनका अपनी रचना के प्रति उत्पन्न हुआ मोह भंग हो गया ..पर मनुष्य का मोह भंग नहीं हो पा रहा है -अपनी रचना के प्रति.
प्रकृति को जीतने की दुराशा में आज   हमने "तत्व-ज्ञान" को नहीं बल्कि "तत्व" को ही  प्रमुख मान लिया है . तत्व की यह प्रमुखता ही कलियुग के जन्म का कारण है .....और यही इसके अंत का कारण भी बनेगी . 
काल को जीतने का प्रयास किया था रावण नें.... किन्तु असफल रहा. काल तो शाश्वत है, हम ही गतिमान हैं ,,,,,,,जन्म और मृत्यु से बंधे हुए हैं. इसीलिये हमारे हिस्से में समय का अल्प भाग है ......और महत्वाकांक्षाएं हैं अनंत .
एक छोटे से जीवन की सीमित अवधि में ही असीमित कार्यों की ऐषणा  करने लगे हैं हम. समय को अत्यंत महत्वपूर्ण बना दिया है  हमारी महत्वाकांक्षाओं नें ...इतना........ कि इसकी तुलना में जीवन स्वयं में महत्वहीन हो गया. जीवन से अधिक महत्व्पूर्ण तो उसके साधन हो गए हैं . 
मनुष्य निर्मित सभी साधनों -उपादानों का मूल्य है बाज़ार में ...उसकी प्रत्येक रचना मूल्यवान है.... किन्तु स्वयं उसके जीवन का कितना मूल्य है आज ?
जीवन गौण हो गया है और शेष सब महत्वपूर्ण. "शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनं" का उपदेश व्यर्थ लगाने लगा है लोगों को. इसीलिए शरीर और मन पर लोगों का अत्याचार बढ़ता जा रहा है दिनों-दिन. अत्याचार के दुष्परिणामों की चिकित्सा के लिए चिकित्सकों के समूह तैयार हो रहे हैं .....और चिकित्सा विशेषज्ञों नें तो मनुष्य शरीर को खंडित कर उसकी समग्रता को ही समाप्त कर दिया है. अब एक विशेषज्ञ शरीर के किसी एक ही भाग की चिकित्सा करता है .
चिकित्सा की समग्रता समाप्त हो गयी..क्योंकि जीवन की लयबद्धता तो पहले ही खंडित हो चुकी है .
लय समग्रता की ओर ले जाती है ....अंश नहीं करती ....विभाग नहीं करती .
शरीर के तंत्रों  की  समग्रता, चिकित्सा की समग्रता ...और ब्रह्माण्ड की समग्रता की लयबद्धता के दृष्टिकोण को समझना होगा. ...."पुरुषोयं लोक संमितः"  की अवधारणा को समझना होगा अन्यथा चिकित्सा भी संपूर्ण और निर्दुष्ट (without side effects ) न हो सकेगी.
आप कहते हैं कि व्यस्तता के कारण आप वह नहीं कर पाते जो आपको करना चाहिए. मैं पूछता हूँ कि यह व्यस्तता किसके लिए है ? इस व्यस्तता का लक्ष्य क्या है? इसका परिणाम क्या है ?
मनुष्येतर प्राणी भी व्यस्त रहते हैं अपने-अपने जीवन व्यापार में ...फिर प्रतिदिन ब्राह्म मुहूर्त में कौन उठाता है मुर्गों को बाँग देने के लिए ? चिड़ियों को कौन जगा देता है सुबह-सुबह चहचहाकर गीत गाने के लिए ? कलियों से कौन कहता है सुबह-सुबह खिलखिलाकर सूर्य का स्वागत करने के लिए ? और क्यों सूर्यास्त होते ही चल देते हैं सब विश्राम के लिए ? क्या वे सब हमसे बड़े वैज्ञानिक नहीं ? 
लयबद्ध हैं सब . केवल मनुष्य का जीवन ही लयहीन होता जा रहा है .
हमारे  सोने -जागने, भोजन करने....कुछ भी करने- न करने की लयबद्धता समाप्त हो गयी है . कुछ भी निश्चित नहीं रहा . अनिश्चित और बेताल हो गया है सब कुछ. हमारी दिनचर्या , रात्रिचर्या ...हमारा आचरण .... किसी में भी लय नहीं रही . आधुनिक जीवन शैली के विष नें जीवन में प्रकृति के संगीत को समाप्त कर दिया है . जीवन में जो एक लय थी ...कहीं खो गयी है वह. लय के अभाव में संगीत कैसा ? जीवन के श्री-हीन होने और आधि-व्याधि से ग्रस्त होने  का यही कारण है. 
प्रकृति पर मनुष्य की निर्भरता और श्रद्धा कम हुयी है . हम अपने ही निर्मित जाल में फस चुके हैं . जीवन उपकरणीय सुविधाओं पर आश्रित होकर पराधीन  हो गया है .उनके  अभाव में ....लगता है कि जैसे जीवन की हलचल थम सी गयी है. 
दिशाहीन दौड़ में गिरते हैं तो चोट खाने पर चिकित्सा लाभ भी चाहते हैं हम ....पर टूटी हुयी लय को जोड़ने का प्रयास नहीं करना चाहते. ......है न ! विचित्र बात ?
मूल्य देकर आरोग्य क्रय करने का दुराग्रह एक परम्परा बनती जा रही है. मूल्य चुकाने के लिए मुद्रा का अभाव नहीं है लोगों के पास . रोगी आरोग्य की आशा में पहुंचते हैं चिकित्सक के पास कि वह जलती हुयी आग को बुझा दे ........और शर्त यह भी रहती है कि वे आग जलाने की प्रक्रिया बंद नहीं कर करेंगे .......सिरोसिस ऑफ़ लीवर में भी शराब पीन बंद नहीं कर सकेंगे ...क्योंकि यह उनके व्यापार की एक अनिवार्य औपचारिकता है.
आग  तो वे जलाते ही रहेंगे क्योंकि उसके बिना उनके जीवन की हलचल थमने लग जायेगी. आप चिकित्सक हैं अतः आग बुझाने का उत्तरदायित्व भी आपका ही है ......कैसे भी बुझायें . ......सशर्त परिणाम पाने का दुराग्रह ! सभ्य एवं सुशिक्षित मानव की यह कैसी अवधारणा है आरोग्य के प्रति ?
पानी का गुण है आग को बुझाना किन्तु जलते हुए पेट्रोल पर पानी डालने का परिणाम विपरीत होता है ....आग और भी भड़कती है . पर लोगों की तो शर्त है कि वे प्रट्रोल में आग लगाना बंद नहीं करेंगे ......उनकी विवशता है  ऐसा करना .  ......यह कैसी विवशता...? गुटका और तम्बाकू खाने की विवशता.... सुबह दस बजे सोकर उठने की विवशता ......खाद्य को त्यागने और अखाद्य  को खाने की विवशता ....विवशताओं का अंत नहीं है.........भले ही कैंसर हो जाय ......एड्स हो जाय.
बड़ी-बड़ी स्वास्थ्य  योजनाओं पर सरकारी धन व्यय किया जा रहा है. लोग धन लिए आरोग्य क्रय करने के लिए भटक रहे हैं किन्तु आरोग्य लाभ नहीं हो पाता और व्याधियाँ  हैं कि सुरसा के वदन की तरह बढ़ती ही जा रही हैं .
हमारा जीवन अनावश्यक आवश्यकताओं से भर गया है . सुर-ताल-लय के लिए स्थान ही नहीं बचा.
एक अनावश्यक आवश्यकता दूसरी कई समस्याओं को एवं कुछ और अनावश्यक आवश्यकताओं को जन्म देती है. एक श्रंखला बन जाती है अनावश्यक आवश्यकताओं..........तत्जन्य समस्याओं एवं उनके निराकरण के लिए कुछ और अनावश्यक आवश्यकताओं की . विकसित मनुष्य समाज उलझ कर रह गया है इन श्रंखलाओं में .
आधुनिक जीवन शैली के नाम पर अनेकों ऐसे उद्योग स्थापित हो गए हैं जिनके उत्पादों की जीवन के लिए उपयोगिता तो नहीं ....हाँ ! पूरी धरती के लिए संकट की स्थिति अवश्य उत्पन्न हो गयी है . यही आसुरी वृत्ति है ....शांत एवं सुखी जीवन की कामना करने वाली दैवी-वृत्ति नहीं. हमारे आचरण की दिशा नें सभ्यता और शिक्षा के औचित्य पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है. 
प्रकृति के विपरीत आचरण करके जीवन की स्वाभाविक लय पाने की आशा कैसे की जा सकती है ? यदि आप आधुनिक जीवन शैली को त्यागने की कल्पना नहीं कर सकते तो फिर तैयार हो जाइए एक और महाविनाशकारी युद्ध के लिए . 
..............नहीं .... आपको प्रकृति की ओर वापस आना ही होगा . देखा नहीं , वह कबसे आपको आमंत्रित कर रही है और आप हैं कि निरंतर उसकी उपेक्षा किये जा रहे हैं . 
हे मनुष्य ! आप समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ एवं विवेकशील हैं . प्रकृति की अब और उपेक्षा मत कीजिये . वह वन्दनीया है ...जीवन-दायिनी ,,,और कल्याण कारी है . चलिए लौट चलते हैं  प्रकृति की ओर .......लौट चलते हैं जीवन की सरलता की ओर .....लौट चलते हैं आनंद की ओर .
चलेंगे न ! आप हमारे साथ ?
     

               

शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

भारतीय स्वास्थ्य चिंतन पर कार्यशाला सम्पन्न

पिछले  २५ अक्टूबर को चंडीगढ़ में  भारतीय स्वास्थ्य चिंतन के राष्ट्रीय संयोजक डॉक्टर अशोक पुरुषोत्तम काले  के सद्प्रयासों से एक कार्यशाला संपन्न हुई . सुखद बात यह रही कि इसमें आधुनिक चिकित्सा-विज्ञान के निष्णात विद्वानों ने न केवल भाग  लिया बल्कि आयुर्वेद के उपेक्षित पक्षों पर व्यावहारिक प्रकाश भी डाला. दिल्ली स्थित पुष्पावती सिंघानिया शोध संस्थान  के प्रशासनिक निदेशक  डॉक्टर दीपक शुक्ल  ने अध्यात्मिक स्वास्थ्य पर प्रकाश डालते हुए आध्यात्मिक ऊर्जा को अमूर्त, सर्व-श्रेष्ठ एवं  चिकित्सा में उपचार का एक आवश्यक साधन बताते हुए कहा कि आध्यात्मिक ऊर्जा से मस्तिष्क का एक भाग - "प्री सेंटर गाइरस" प्रकाशित होता है. 
डॉक्टर आर. एन . महरोत्रा नें  देह व् मानस प्रकृति की निदानोपचार में  व्यावहारिक उपादेयता को महत्व देते हुए चिकित्सा में प्रकृति निर्धारण को अपनाए जाने पर बल दिया. 
आयुर्वेद विश्वविद्यालय जामनगर से आये वैद्य हितेश जानी नें गाय व् ग्राम्याधारित स्वास्थ्य नीति बनाए जाने की आवश्यकता पर बल देते हुए गाय  को सुख-समृधि का क्रांतिकारी स्रोत निरूपित किया. उन्होंने बताया कि बुद्धिवर्धक तत्व सेरिब्रोसाइड  एवं कैंसर विरोधी तत्व सी. एल. ए. केवल भारतीय देशी गायों के दूध में ही पाया जाता है . गाय के दूध में पाया जाने वाला पीलापन कैरोटिन की उपस्थिति के कारण होता है  जोकि  गाय में पायी जाने वाली सूर्य-केतु नाडी के प्रभाव से उत्पन्न होता है. भारतीय देशी गायों के विशिष्ट महत्व के कारण ही ब्राजील एवं न्यूजीलैंड में भारतीय देशी सांडों से गायों की नयी प्रजातियाँ उत्पन्न की जा रहीं हैं एवं उनसे क्रांतिकारी परिवर्तन लाये जा रहे हैं. जामनगर में किये गए प्रयोगों से पता चला है कि राग ललित, विभाष, भैरवी एवं आसावरी  से गाय में उत्पन्न होने वाले प्रभावों से उनके दूध में चमत्कारी गुण उत्पन्न होते हैं . गुजरात में किये गए इन प्रयोगों से बृज की गायों और कृष्ण की बांसुरी  के सुरों के बीच संबंधों की पुष्टि होती है . 
वस्तुतः गाय और गाँव के अर्थ-शास्त्र को पुनः स्थापित किये बिना भारत को सुखी व् समृद्धिशाली बनाया जा सकना संभव नहीं है. 

सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

अभिवादन और संक्रमण

मर्यादा  पुरुषोत्तम  श्री  राम  की  ननिहाल  में अभिवादन के पाश्चात्य तरीके से सावधान रहने की आवश्यकता है / जी हाँ ! मैं छत्तीसगढ़ की बात कर रहा हूँ / यहाँ अस्पताल आने वाले रोगियों में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो डॉक्टर से हाथ मिलाना आवश्यक समझते हैं फिर भले ही वे नोसोकोमिअल इन्फेक्शन के शिकार क्यों न हो जाएँ/
              लगता है ''हाथ धो दिवस'' में लोगों को यह भी बताने की ज़रुरत है कि न केवल भोजन से पूर्व हाथ धोने की आवश्यकता है अपितु हाथ को संक्रमित होने से बचाने की आवश्यकता भी है / ....और इसके लिए उन्हें केवल हाथ जोड़कर भारतीय पद्यति से नमस्कार करने की आदत डालनी होगी/ 
             अस्पताल परिसर में क्रास-इन्फेक्शन होना एक आम बात  है/  केवल अमेरिका में क्रास इन्फेक्शन  के कारण प्रति वर्ष हज़ारों लोगों की मृत्यु हो जाती है जबकि इसे रोकना ज़रा भी मुश्किल नहीं है/ बस उन्हें इतना ही बताने की आवश्यकता है कि अभिवादन का सबसे बेहतर तरीका हाथ जोड़कर नमस्कार करना ही है/ 
मुझे याद है एक बार मैं अपने एक मित्र से मिलने अस्पताल पहुंचा वे ऑपरेशन करने केलिए तैयार हो चुके थे , मेरा नाम सुनते ही ओ.टी से बाहर आये , आते ही ग्लब्स  पहने ही बड़ी गर्मजोशी से उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया/ मुझे संकोच हुआ पर उनके बढ़े हुए हाथ की अवहेलना नहीं कर सका / जब वे वापस अन्दर जाने लगे तो उनके पीछे-पीछे आयी नर्स नें उन्हें फिर से प्रेपरेशन रूम की ओर इशारा किया , वे झेंप गए. और सॉरी कहकर ग्लब्स बदलने चले गए/ नर्स मुस्कराई -" मुझे पता था आप भूल जायेंगे इसीलिये मैं आपके पीछे-पीछे आ गयी"
यह   अक्षम्य  गलती थी, किसी सर्जन से इस गलती की ज़रा भी आशा नहीं की जा सकती/  ऐसा नहीं कि  वे IATREOGENIC कारणों की गंभीरता को नहीं जानते / दर-असल हमारे समाज का ढांचा ही कुछ इस तरह का बना हुआ है कि हम किताबों के आदर्श से बहुत ज़ल्द बाहर आ जाते हैं और एक आम आदमी जैसे बन कर व्यवहार करने लगते हैं / 
खैर,  मैं आपको यह बता देना चाहता हूँ कि हर व्यक्ति एक वाहक के रूप में व्यवहार करते हुए रोगजनक माइक्रो ओर्गेनिज्म को एक व्यक्ति से दूसरे तक पहुंचाता है , कोई आवश्यक नहीं कि वाहक स्वयं रोगी ही हो , वह स्वस्थ्य भी हो सकता है पर अपने संपर्क में आने वाले दूसरे लोगों को रोगी बना सकता है / अब क्योंकि अस्पताल में विभिन्न रोगों के रोगी आते हैं इसलिए स्वाभाविकतः  वहां विभिन्न रोग-जनक माइक्रोब्स की भरमार होगी / डॉक्टर स्वयं भी प्रतिदिन न जाने कितने रोगियों के सीधे संपर्क में आते हैं और एक सशक्त वाहक बन जाते हैं / नोसोकोमिअल इन्फेक्शन से बचने के लिए इतना एहतियात ज़रूरी है / यदि हम इतना कर लेते हैं तो अनेकों रोगों से यूँ ही बच सकते  हैं/
 ................और इस मुहिम में सभी डॉक्टर्स से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वे हाथ मिला कर अभिवादन करने की इस अवैज्ञानिक एवं रोग फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली विदेशी एवं सर्वथा अनुपयुक्त  परम्परा को हतोत्साहित करने में अपनी सक्रिय भूमिका को निभाने के क्रम में सबसे पहले स्वयं हाथ जोड़ कर नमस्कार करना प्रारम्भ करने का मेरा निवेदन स्वीकार करें /
                                         ..........सर्वे भवन्तु सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामयाः / 

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

आनंद की खोज में .....

जीवन अद्भुत है .......प्रकृति को ईश्वर का  एक अनुपम उपहार. यह विज्ञान भी है और कला भी. आप जीवन को कलात्मक विज्ञान भी कह सकते हैं.दुर्भाग्य से हमने जीवन के विज्ञान को जीवन की कला से पृथक कर दिया है, परिणाम  स्वरूप  आज हम न जाने कितनी व्याधियों से ग्रस्त होते जा रहे हैं.........शारीरिक-मानसिक व्याधियां. सभी के विशेषज्ञ अपनी विशेषज्ञता के साथ लोगों को स्वास्थ्य लाभ देने का प्रयास कर रहे हैं.पर रोग हैं कि पीछा छोड़ने को तैयार ही नहीं.......यह विचारणीय है. ऐसा क्यों हो रहा है ?
       कारण स्पष्ट है, हमने जीवन की सम्पूर्णता को खंडित कर दिया है. जीवन से विज्ञान को खंड-खंड कर दिया.....और फिर उसकी कलात्मकता को नष्ट कर दिया.जीवन  अब सहज-सरल नहीं  रह गया. उसका सहज प्रवाह समाप्त हो गया है .
मैं आपको एक बात बताता हूँ .हृदय के रोगों के लिए आप कार्डियोलोजिस्ट के पास  जाते हैं, मूत्र संबंधी रोगों के लिए नेफ्रोलोजिस्ट के पास जाते हैं. शरीर अपनी समग्रता के साथ कार्य करता है. जबकि दोनों विशेषज्ञ अपने-अपने तरीके से ....अपने-अपने क्षेत्र विशेष में कार्य करते हैं. दोनों ने दिल और गुर्दों को एक दूसरे से अलग करके देखने का प्रयास किया.विज्ञान  ने शरीर को खंडित कर दिया न ! तो अब चिकित्सा सम्पूर्ण कैसे हो सकेगी ? आज-कल होलिस्टिक अप्रोच   की बात की जा रही   है.यह  जीवन  को  उसकी  समग्रता  के  साथ  देखने  का  प्रयास  है . जीवन  अपने  समस्त  तत्वों  के  साथ विचारा  जाय .........पूर्ण  विज्ञान  और  पूर्ण  कला  के  साथ .
       आज कल तो हमारा जीवन यंत्रवत हो गया है.जीवन का आनंद समाप्त हो गया, जब कला ही नहीं तो आनंद कहाँ से आयेगा ? क्या यह आश्चर्य नहीं कि हम सब आनंद की खोज में ही तो दिन-रात लगे रहते हैं पर आनंद के लिए ही समय नहीं निकाल पाते ! दिन-रात काम-काम ......व्यस्तता ही व्यस्तता. और फिर प्रारम्भ होता है रोगों का सिलसिला. सच तो यह है कि रोगों का नियंत्रण सीधे हमारे ही हाथों में है. कितने लोगों को मालुम है यह ?
     आगे के आलेखों में हम जीवन के वैज्ञानिक और कलात्मक सभी पक्षों पर चिंतन करने का प्रयास करेंगे. और प्रयास करेंगे कि जीवन को कैसे निरामय और आनंदमय बनाया जाय. इस चिंतन-यात्रा में सहभागिता के लिए आप भी सादर आमंत्रित हैं. इति शुभम !     .